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शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा

जन्मदिवस [27 नवंबर] पर विशेष
बच्चन के काव्य में मनुष्य


Picture of Harivansh Rai Bachchan

‘‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।’’


कविता और गद्य दोनों में निरंतर निश्छल रूप से अपने आपको पाठकों में समक्ष प्रस्तुत करने वाले अनन्य शब्दशिल्पी डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ (27 नवंबर 1907 - 18 जनवरी 2003) ने कभी इसकी परवाह नहीं कि जग उन्हें साधु समझता है या शैतान। उन्होंने तो सहृदय लोक को अपनी कसौटी माना और उसे ही अपना प्रियतम मानकर अपनी ‘मधुशाला’ समर्पित कर दी, जग तो प्रसाद पाता ही -

'‘पहले भोग लगा लूं तेरा, फिर प्रसाद जग पाएगा।’'


छलरहित व्यवहार, जो जाने कितने अयाचित शत्रुओं को तलवारें भाँजने को प्रेरित करता है - बस निश्छल प्यार भर है। यों तो जग और जीवन भार ही है पर प्यार इसे सह्य और मधुर बना देता है -

'‘मैं जग जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।’'


प्यार लिए फिरोगे तो जग तुम्हें ऐसे कभी न जाने देगा! पर प्यार करने वाले भला जग की परवाह कब करते हैं? यों भी स्नेह-सुरा का सेवन करने वालों को इतनी फुरसत कहां कि दुनिया वालों का कुत्सित प्रलाप सुनते बैठें -

'‘मैं स्नेह सुधा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ।’'


लुकाछिपी की जरूरत भी क्या है ? छिपाते तो वे हैं जो प्यार को पाप समझते हैं। बच्चन के मूल्य बोध में प्रेम कोई वर्जित फल नहीं है। वह तो सृष्टि का हेतु है - उतना ही सहज और निष्कलुष जितना दिवा-रात्रि का प्रत्यावर्तन:

'‘सृष्टि के आरंभ में मैंने उषा के गाल चूमे।
बाल रवि के भाग्य वाले दीप्त भाल विशाल चूमे।।
प्रथम संध्या के अरुण दृग चूमकर मैंने सुलाए।
तारिका कलिका सुसज्जित नव निशा के बाल चूमे।।’’


बच्चन के लिए प्रेम प्रकृति का उत्सव है। प्रकृति और पुरुष जब भी जहाँ भी मिल गए, वहीं आनंद की वृष्टि हो गई, वहीं उल्लास की सृष्टि हो गई -

'‘जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम, वहीं हो गई मधुशाला।’'


मधुशाला भी ऐसी वैसी नहीं, इंद्रधनुष को चुनौती देने वाली -

‘‘महँदी रंजित मृदुल हथेली
में माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले
स्वर्णवर्ण साकी बाला,
पाग पैंजनी जामा नीला
डाट डटे पीने वाले -
इंद्रधनुष से होड़ रही ले
आज रंगीली मधुशाला।’’


ऐसा अवसर मिले और छद्म ओढ़कर मनुष्य उसे छिपने-छिपाने के पापबोध में ही गँवा दे, यह न उचित है न वांछित। यह अवसर है मनुष्य होने का सौभाग्य, और यह मधुशाला है जीवन। मधु शराब नहीं है, प्रेम है - अनिवार प्रेम । काम तो मनुष्य और पशु दोनों में सामान्य है।प्रेम के रूप में आत्मा का विस्तार केवल मनुष्य जीवन की उपलब्धि है। उसे ओक से पीने में कैसी लाज-

‘‘आज मिला अवसर तब क्यों
मैं न छकूँ जी भर हाला,
आज मिला मौका तब फिर क्यों
ढाल न लूं जी भर प्याला ;
छेड़छाड़ अपने साकी से
आज न क्यों जी भर कर लूं -
एक बार ही तो मिलती है
जीवन की यह मधुशाला।’’


जीवन रूपी यह मधुशाला अनंत उल्लास का स्रोत बनी रहे, इसके लिए प्रेमपात्र और प्रिय के मध्य द्वैताद्वैत की क्रीड़ा चला करती है। थकना और सोना इस क्रीड़ा में नहीं चलता। एक सतत चलने वाला रास-महारास! निरंतर चलने वाला संवाद! तभी तो बच्चन को कहना पड़ा :

‘‘साथी! सो न, कर कुछ बात।
बात करते सेा गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू!
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात।’’
असल बात तो यह है कि सो जाना मर जाना है -

‘आओ, सो जाएँ , मर जाएँ ।’


पर मरना न तो कवि स्वीकार करता है, न प्रेमी (‘‘हम न मरैं, मरिहै संसारा’' - कबीर) इसलिए ‘अग्निपथ’ का भी वरण करना पड़े तो बच्चन को स्वीकार है! इस पथ पर धोखा भी मिल जाए, तो कोई शिकवा नहीं-

‘‘किस्मत में था खाली खप्पर
खोज रहा था मैं प्याला,
ढूंढ़ रहा था मैं मृगनयनी
किस्मत में थी मृगछाला ;
किसने अपना भाग्य समझने में
मुझ सा धोखा खाया -
किस्मत में था अवघट मरघट
खोज रहा था मधुशाला।’’


कवि बच्चन के लिए काव्य साधना मानव जीवन को बेहतर और उच्चतर बनाने की साधना थी। साहित्यकार के दायित्व के संबंध में उनका प्रश्न था कि क्या यूरोप के सारे साहित्यकार मिलकर प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध को रोक सके। उनकी दृष्टि में साहित्यकार का अपना क्षेत्र या स्वधर्म मानव को अधिक मानवीय चेतना देना है। वे चाहते थे कि साहित्य मनुष्य को केवल मनुष्य के नाते समझे और उसके अहं को इतना छील दे कि वह दूसरे मनुष्य के साथ अपनी समता देख सके। इससे उसका व्यवहार छलरहित हो सकेगा और तब उसे कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं होगी। वैसे प्रेम तो न छिपाया जा सकता है, न बताया। जिसे छिपाना संभव हो, वह प्यार ही क्या! पर जिसे बताना पड़े, वह प्यार भी क्या -

‘‘प्यार किसी को करना,
लेकिन कहकर उसे बताना क्या?’’


वस्तुतः बच्चन का काव्य उनके जीवनक्रम के साथ-साथ मधुकाव्य, विषादकाव्य, प्रणयकाव्य और राजनैतिक-सामाजिक काव्य जैसे सोपान पार करते हुए अपनी विकासयात्रा संपन्न करता है (डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, 428)। इस विकासयात्रा में उनका काव्यनायक अथवा अभिप्रेत मनुष्य भी निरंतर विकास करता चलता है। मधुकाव्य (मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश) का मनुष्य उत्तरछायावाद की प्रवृत्ति के अनुरूप शरीर के अनुभवों को अधिक महत्व देता दिखाई पड़ता है। वह नियति, भाग्यवाद और मृत्युबोध से ग्रस्त होने के दौर को पार करता हुआ क्रमशः यौवन का उल्लास, साहस और चुनौतियों का सामना करने का उत्साह संजोकर अवसाद को जीतने का प्रयास करता है। अकेलेपन के घनघोर अँधेरे के पार झिलझिलाते प्रकाश के प्रति आस्था बच्चन के मधुकाव्य के मनुष्य को ‘साधारण मनुष्यों का नायकत्व’ प्रदान करती है। यह मनुष्य विषादकाव्य (निशानिमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर) में अवसाद की कड़ी चोटें झेलता दिखाई देता है परंतु नीड़ उजड़ जाने पर भी हताश नहीं है तथा अपने शोक को इस प्रकार श्लोकत्व प्रदान करता है कि अनुभूति की सघनता और करुणा के योग से उसमें देवत्व को भी ललकार सकने वाली तेजस्विता जन्म लेती है। इस तेजस्विता में दुर्बलता को दुलराने वाली दुर्लभ मानवता (‘‘दुर्बलता को दुलराने वाली मानवता दुर्लभ है’’- डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, 429) निहित है। इस मनुष्य का अनुभूतिजन्य करुण आत्मविश्वास द्रष्टव्य है :

‘‘मुझ में है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को दुलराने वाले!’’
(निशा निमंत्रण, गीत 70)|


इसी से वह संकल्पवान और आस्थाशील मनुष्य प्रकट होता है जो ‘क्षतशीश’ होकर भी ‘नतशीश’ होने को तत्पर नहीं है। इस मनुष्य का अगला विकास प्रणयकाव्य (सतरंगिनी, मिलनयामिनी, प्रणय पत्रिका) में नीड़ का फिर-फिर निर्माण करने तथा अँधेरी रात के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी अँधेरे के सामने आत्मसमर्पण किए बिना दीवा जलाकर अंधकार पर प्रकाश की जीत को सुनिश्चित करने वाले धीर नायक के रूप में सामने आता है। सामाजिक-राजनैतिक कविताओं (बंगाल का काल, खादी के फूल, सूत की माला, धार के इधर-उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूँटे, दो चट्टानें, जाल समेटा) तक आते-आते बच्चन का यह काव्य-नायक मनुष्य अपने व्यक्तित्व के रूपांतरण और समाजीकरण में सफल हो जाता है ; और यही मनुष्यत्व की सार्थकता है - कवित्व की भी :

‘‘ओ जो तुम बाँधकर चलते हो हिम्मत का हथियार,
ओ जो तुम करते हो मुसीबतों व मुश्किलों का शिकार,
ओ जो तुम मौत के साथ करते हो खिलवार,
ओ जो तुम अपने अट्टहास से डरा देते हो मरघटों का सुनसान,
भर देते हो मुर्दों में जान,
ओ जो तुम उठाते हो नारा - उत्थान, पुनरुत्थान, अभ्युत्थान!
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा क़लम,
खुलती है मेरी ज़बान।
ओ जो तुम ताजे़,
ओ जो तुम जवान!’’
(‘आह्वान’, बुद्ध और नाचघर, 28)


बच्चन की दृष्टि में वह मनुष्य मनुष्य नहीं, पशु है जिसका स्वाभिमान जीवित न हो। उनका काव्य ऐसे मनुष्य की ख़ोज का काव्य है जो युद्धक्षेत्र में भुजबल दिखलाता हुआ प्रतिपल अविचल और अविजित रहे। यह मनुष्य अपने खून-पसीने से प्राप्त अधिकार का उपभोग करता है तथा भाग्यवाद का प्रचार करने वाले मठ, मस्जिद और गिरजाघरों को ‘मनुज-पराजय के स्मारक’ मानता है :

‘‘झुकी हुई अभिमानी गर्दन,
बँधे हाथ, नत-निष्प्रभ लोचन!
यह मनुष्य का चित्र नहीं है, पशु का है, रे कायर!
प्रार्थना मत कर, मत कर, मत कर!’’
(बच्चन रचनावली - 1, एकांत संगीत, 254)

बच्चन अपनी कविता में जिस मनुष्य को गढ़ते हैं, वे चाहते हैं कि वह भले ही दोस्तों की बेवफाई का शिकार बनकर अभागा रह जाए लेकिन उनके चेहरे पर पड़े मित्रता के उस आवरण को छिन्न-भिन्न न करे जिसके आधे तार उसके अपने हाथ के काते और बुने हैं ;परंतु शत्रु के समक्ष किसी भी प्रकार की भीरुता उन्हें सह्य नहीं है, तभी तो -

‘‘शत्रु तेरा
आज तुझ पर वार करता
तो तुझे ललकारता मैं -
उठ,
नहीं तू यदि
नपुंसक, भीरु, निर्बल,
चल उठा तलवार
औ’ स्वीकार कर उसकी चुनौती।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘दोस्तों के सदमे’, 91)


यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कवि को अपनी कविता के लिए भले और बुरे दोनों ही तरह के मनुष्य मिले हैं, परंतु उसकी खोज का लक्ष्य केवल वही मनुष्य है जो मनुष्यता के उदात्त गुणों से संपन्न हो। यह खोज तब तक चलती रहेगी जब तक विश्वासघात करने वाला आदमजात सचमुच अपने दृष्टिकोण को कम-से-कम इतना बड़ा न बना ले कि किसी का सम्मान कर सके, किसी की कमज़ोरी का आदर कर सके, क्योंकि इसी गुण से मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है :

‘‘बहुत बड़ा कलेजा चाहिए
किसी का करने को सम्मान,
और किसी की कमज़ोरियों का आदर -
यह है फ़रिश्तों के बूते की बात,
देवताओं का काम!’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘कडुया अनुभव’, 105)


पहाड़ी चिड़िया के बहाने अपने काव्य नायक को संबोधित करते हुए बच्चन उसे किसी भी प्रकार का प्रलोभन या बंधन स्वीकार करने से रोकते हैं तथा उसे मुक्त आकाश, पृथ्वी और पवन से प्रेरणा प्राप्त करने को कहते हैं। कवि अपने मनुष्य से चाहता है कि वह कभी पराजय स्वीकार न करे बल्कि चुनौतियों का डटकर मुक़ाबला करे -

‘‘बादलों के गर्जनों से,
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से
राग सीखो। xxx
नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ।
इंद्रधनु के गीत गाओ।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘काल विहंगिनी’, 116)


चिड़िया से आगे बढ़कर कवि चील-कौए और पपीहे के द्वंद्व के माध्यम से मनुष्य की अंतर्वृत्तियों के संघर्ष को रूपायित करता है। सब कुछ को हस्तगत करने की अविवेकपूर्ण क्षुद्र वासना के चील-कौए मनुष्य की अंतश्चेतना में तभी बस पाते हैं जब वह केवल स्वाति-जल की रट लगाने वाले पपीहे की गर्दन तोड़ देता है। मनुष्यत्व का संस्कार जगता है तो मनुष्य फिर से पपीहे की प्रतीक्षा करता है :

‘‘पालना उर में
पपीहे का कठिन है,
चील-कौए का, कठिनतर,
पर कठिनतम
रक्त, मज्जा,
मांस अपना
चील-कौए को खिलाना,
साथ पानी
स्वप्न स्वाती का
पपीहे को पिलाना। xxx
तुम अगर इंसान हो तो
इस विभाजन,
इस लड़ाई
से अपरिचित हो नहीं तुम!’’


बच्चन की कविता के मनुष्य का आदर्श वह स्फटिक निर्मल और दर्पण-स्वच्छ हिमखंड कदापि नहीं हो सकता जो गल-पिघल और नीचे को ढलककर मिट्टी से नहीं मिलता। उसका आदर्श तो वह नदी है जो मिट्टी के कलंक को भी अपने अंक में लेकर जीवन की गत के साथ मचलती है। समाज का वह कथित कुलीन वर्ग जो साधारण जीवन के लोकानुभवों से वंचित है, बच्चन का काव्यनायक नहीं है। हिमखंड अपने ठोस दुर्लभ आभिजात्य में कितना भी इतरा ले, कवि के मनुष्य का आदर्श तो नदी जल की सर्वत्र अयत्न सुलभता ही है -

‘‘उतर आओ
और मिट्टी में सनो,
ज़िंदा बनो,
यह कोढ़ छोड़ो,
रंग लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ।
तोड़ते हैं प्रेयसी-प्रियतम तुम्हें ?
सौभाग्य समझो,
हाथ आओ,
साथ जाओ।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘चोटी की बरफ’, 126)


मनुष्यता की जययात्रा के मूल में मनुष्य की अदम्य जिजीविषा तथा अपराजेय संघर्षशीलता की परंपरा विद्यमान रही है। कवि बच्चन का मनुष्य इस परंपरा के दाय को स्वीकार करता है और इसके प्रति अपने उत्तरदायित्व से विमुख नहीं है। परंपरा का ऋण-शोधन करके ही विकास के क्रम को आगे बढ़ाया जा सकता है -

‘‘जो शकट हम
घाटियों से
ठेलकर लाए यहाँ तक,
अब हमारे वंशजों की
आन ,
उसको खींच ऊपर को चढ़ाएँ
चोटियों तक।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘युग का जुआ’, 129)


मनुष्य का जीवन निरंतर ऊहापोह, उत्थान-पतन और परिवर्तन की गाथा है : ऐसे परिवर्तन जो उसके ऊपर एकांत और निर्वासन की त्रासदी को नियति की तरह छोड़ देते हैं। इस एकाकी और निर्वासित मनुष्य की बेचैनी और उदासी साँझ के उस पिछड़े पंछी की तरह है जिसका नीड़ उजड़ चुका है। नीड़ का यह पंछी वह अनिकेतन मनुष्य है जिसकी पीड़ा को कवि ने अपने अनुभव से जाना है -

‘‘अंतरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक - अकेला!
बीत चली संध्या की वेला!’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 5)


साँझ की बेला बीतती है, तो अँधियारा और घनघोर तथा भयावह हो जाता है, लेकिन बच्चन का पथिक-मनुष्य इस अँधरे से डरकर न तो रुककर बैठ जाता है, न चुपचाप दबे पाँव चलता है ; इसके विपरीत वह सुनसान अंधकार के डर को ऊँचे स्वर के गीत की आरी से काटता है -

‘‘डर न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा कर स्वर,
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है।
अंधकार बढ़ता जाता है।’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 8)


अंधकार बढ़ता है, तो रात और गहरी होती है। रात गहराती है, तो प्रवंचनाओं की संभावना बढ़ जाती है। असंभव सपनों में खोए अपने काव्यनायक को सावधान करते हुए कवि कहता है -

‘‘सत्य कर सपने असंभव!
पर, ठहर, नादान, मानव --
हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन
अब निशा देती निमंत्रण।’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 17)


काल की प्रवंचना और मनुष्य के प्रयत्न के द्वंद्व से ही मनुष्यता निखरती है। काल से जूझता हुआ यह मनुष्य अब कोई एकाकी व्यक्ति मात्र नहीं है, संपूर्ण मानवजाति का प्रतिनिधि है। कवि इस विश्वमानव के लिए शुभकामना व्यक्त करता है -

‘‘मानव का सच हो सपना सब,
हमें चाहिए और न कुछ अब,
याद रहे हमको बस इतना - मानव जाति हमारी !
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 98)


इस विश्वमानव का दर्शन कवि बच्चन ने अपनी काव्ययात्रा के आरंभ में ही कर लिया था। उन्हें वह मनुष्य नहीं चाहिए जो संपूर्ण जगत को धर्म, जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि के आधार पर बाँटता हो, बल्कि वे केवल ऐसे विद्रोही मनुष्य का ही स्वागत करने को तैयार हैं जो इन तमाम भेदों का अतिक्रमण कर चुका हो और ‘वसुधैव कुटुम्बकं' तथा ‘विश्वबंधुत्व’ का प्रतीक हो -

‘‘धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है
जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मस्जिद, गिरजे-सबको
तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादरि़यों के
फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का
स्वागत मेरी मधुशाला।’’
(बच्चन रचनावली -1, ‘मधुशाला’, 47)


अपनी शक्ति पर विश्वास तथा संघर्ष के प्रति दृढ़ संकल्प वे मूल्य हैं जिनसे कवि बच्चन ने अपने काव्यनायक के सहज मानवीय व्यक्तित्व को गढ़ा है। ये मूल्य उनके काव्य में अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से व्यक्त हुए हैं। विपरीत परिस्थितियों की भीषणता से भयभीत होकर अपने प्रयत्न को छोड़ बैठना या अंतिम क्षण तक लड़े बिना ही हार मान बैठना बच्चन के मनुष्य का स्वभाव नहीं है ; उसे साधनहीनता के
बावजूद असाध्य ध्येय को भी साध लेने की अपनी क्षमता पर अटूट विश्वास है :
‘‘जायगा उड़ पाल होकर तार-तार विशद गगन में,
टूटकर मस्तूल सिर पर आ गिरेगा एक क्षण में,
नाव से होकर अलग पतवार धारा में बहेगी,
डाँड छूटेगा करों से, पर बचा यदि प्राण तन में

तैर कर ही क्या न अपने ध्येय को मैं जा सकूंगा ;
मथ चुके हैं कर न जाने बार कितनी विश्व-सागर!

धूलिमय नभ, क्या इसी से बाँध दूँ मैं नाव तट पर ?’’
(बच्चन रचनावली -1, 140)


इस सतत संघर्षशील, सहज संकल्पशाली, दृढ़व्रती तथा अपराजेय मनुष्य को अग्नि के अनंत पथ पर चलना स्वीकार है परंतु किसी बड़े वृक्ष से एक पत्ता-भर भी, छाँह माँगना गवारा नहीं। इसने कभी भी न थकने, न थमने और न मुड़ने की शपथ ली है। आँसू, पसीने और खून से लथपथ साधारण मनुष्य का यह संघर्ष असाधारण है; और इसीलिए महान भी :

‘‘अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

वृक्ष हों भले बड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत,माँग मत!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी! - कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

यह महान दृश्य है -
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!’’
(बच्चन रचनावली -1, ‘एकांत गीत’, 247)|


शनिवार, 21 नवंबर 2009

छायावादी वर्षा : बादल राग से दुख की बदली तक

छायावाद : बादल/वर्षा/पावस/सावन












सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
1. बादल राग (1,2,3,4,5,6) (परिमल)
2. जलद के प्रति (परिमल)
3. अलि, घिरि आये घन पावस के (परिमल)
4. छाये आकाश में काले-काले बादल देखे (बेला)
5. गर्जन से भर दो वन (राग विराग)
6. कौन तम के पार ? (राग विराग)
7. लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, (राग विराग)
8. उत्साह (बादल, गरजो!) (राग विराग)
9. बादल छाये (राग विराग)
10. बातें चलीं सारी रात तुम्हारी (राग विराग)
11. काले-काले बादल छाये (राग विराग)
12. टूटी बाँह जवाहर की (राग विराग)
13. खुला आसमान (राग विराग)
14. फिर बेले में कलियाँ आईं (राग विराग)
15. मालती खिली, कृष्ण मेघ की (राग विराग)
16. प्यासे तुमसे भरकर हरसे (राग विराग)
17. जिधर देखिये, श्याम विराजे (राग विराग)
18. पारस, मदन हिलोर न दे तन (राग विराग)
19. केश के मेचक मेघ छूटे (राग विराग)
20. धिक मनस्सब, मान, गरजे बदरवा (राग विराग)
21. धिक मद, गरजे बदरवा (राग विराग)
22. मुक्तादल जल बरसो, बादल (अर्चना)
23. गगन गगन है गान तुम्हारा (अर्चना)
24. बीन वारण के वरण घन (अर्चना)
25. घन आये, घनश्याम न आये (अर्चना)
26. तपी आतप से जो सित गात (अर्चना)
27. मन मधु बन, आली ! (अर्चना)
28. पथ पर मेरा जीवन भर दो (अनामिका)
29. बादल, गरजो (अनामिका)
30. नाचे उस पर श्यामा (अनामिका)
31. वर्षा (नए पत्ते)
32. घन, गर्जन से भर दो वन (अपरा)
33. बादल (अपरा)
34. आये घन पावस के (अपरा)







सुमित्रानंदन पंत
1. मौन निमंत्रण (तारापथ)
2. पर्वत प्रदेश में पावस (रश्मिबंध)
3. युग विषाद (रश्मिबंध)
4. वर्षा गीत (रश्मिबंध)
5. काले बादल (मुक्ताभ)
6. मेघों के पर्वत (मुक्ताभ)
7. बदली का प्रभात (चिदंबरा)
8. झंझा में नीम (चिदंबरा)
9. कृष्ण घन (चिदंबरा)
10. काले बादल (सुनता हूँ मैंने भी देखा) (चिदंबरा)
11. सावन (चिदंबरा)
12. जगत घन (चिदंबरा)
13. अंतरव्यथा (चिदंबरा)
14. युग विराग (चिदंबरा)
15. मेघों के पर्वत (चिदंबरा)









जयशंकर प्रसाद
1. उनको देख कौन रोया (कामायनी)
2. रूप (झरना)
3. पावस प्रभात (झरना)
4. आह रे, वह अधीर यौवन (लहर)
5. जो घनीभूत पीड़ा (आँसू)











महादेवी वर्मा
1. मेह बरसने वाला है (प्रथम आयाम)
2. बारहमासा (माँ कहती अषाढ़ आया है) (प्रथम आयाम)
3. मरजाद सँभारहु (प्रथम आयाम)
4. मुक्तावलियान में (प्रथम आयाम)
5. षड्ऋतु (कुमकुम से नभ बंध सजे) (प्रथम आयाम)
6. पपीहे से (प्रथम आयाम)
7. करते करुणा घन छाँह जहाँ (प्रथम आयाम)
8. पानी से (प्रथम आयाम)
9. सागर हू न पठायो इन्हें (प्रथम आयाम)
10. नहिं कारे न ऊदे न गर्जन हारे (प्रथम आयाम)
11. बादल (कहाँ गया वह श्यामल बादल) (प्रथम आयाम)
12. विहान रहा (प्रथम आयाम)
13. कण की महिमा (प्रथम आयाम)
14. घटा गिरती रही (प्रथम आयाम)
15. हंस दूत (प्रथम आयाम)

16. जो न प्रिय पहचान पाती (दीपशिखा)

17. मैं न यह पथ जानती री (दीपशिखा)
18. झिप चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष (दीपशिखा)
19. मिट चली घटा अधीर (दीपशिखा)
20. मेघ-सी घिर झर चली मैं (दीपशिखा)

21. निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते (दीपशिखा)
22. मैं पलकों में पाल रही हूँ (दीपशिखा)

23. नव घन आज (नीलांबरा)
24. तुम्हें बाँध पाती सपने में (नीरजा)
25. आज क्यों तेरी वीणा मौन (नीरजा)
26. शृंगार कर ले री सजनि (नीरजा)

27. घन बनूँ वर दो मुझे प्रिय (नीरजा)
28. आ मेरी चिर मिलन यामिनी (नीरजा)

29. कमलदल पर किरण अंकित (नीरजा)
30. क्या नयी मेरी कहानी (नीरजा)
31. जाने किसकी स्मित रूम झूम (नीरजा)
32. मुस्काता संकेत भरा नभ (संधिनी)
33. लाये कौन संदेश नये घन (संधिनी)
34. प्राणपिक प्रिय-नाम रे कह (संधिनी)
35. मिट चली घटा अधीर (संधिनी)

36. कहाँ से आए बादल काले (संधिनी)
37. मैं नीर भरी दुख की बदली (संधिनी)

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

कैलाशगिरि : वागर्थाविव संपृक्तौ


कैलाशगिरि : वागर्थाविव संपृक्तौ

कैसा लगता होगा आदमी को तब जब वह गंभीर और प्रौढ़ दिखना चाहे लेकिन परिस्थिति उसे बचपने पर मजबूर कर दे! सोचा था भले आदमियों के परिवार में टिका हूँ, बनमानुष जैसी हरकतें नहीं करूँगा. गंभीर रहूँगा. भला मानुस दिखूँगा . पर गृह-स्वामी स्वयं साढ़े दस बजे रात में पूछे कि- समुद्र किनारे घूमने चलेंगे ? तो क्या किया जाए. ना नुकुर की तो पट्ठा यूनस बोला - 'बुड्ढे हो गए ?' और अपनी दो दशक पुरानी शरारतभरी हँसी हँसा, जब वह मेरा एम.फिल. का छात्र था और हम आधी रात में मद्रास की सड़कों पर घूमने निकलते थे. 'ऐसी बात है तो चलो', कह दिया मैंने. विशाखापट्टनम की सड़कों पर उसने अपना दुपहिया सरपट दौड़ाया. रात का समुद्र दिखाया. शिलाओं को चूम चूम लौटता समुद्र देख एक क्षण को बच्चन जी के गीत की पंक्ति याद आई- ''सुनसान रात गुपचुप तारे , एकांत चंद्र नभ मूक आप / सागर लहरों को बिठा गोद , मुख चूम उमंगें रहा माप''. पर नहीं, यहाँ लहरों को नहीं चूम रहा था सागर, लहरों से चूम रहा था तट को . और अचानक कौंध गया मन में सोम ठाकुर का वह प्रसिद्ध गीत - ''सागर चरण पखारे, गंगा शीश चढ़ावे नीर / मेरे भारत की माटी है चंदन और अबीर''. देर तक हम भारतमाता के चरण पखारते समुद्र के बिंब को अपने प्राणों में भरते रहे. और जब लौटे तो अपना गला गली बन चुका था.

अगले दिन दोपहर के भोजन पर संतोष अलेक्स ने बुला रखा था, पुराने दोस्त हैं अपने. बहुत सम्मान करते हैं, अच्छे बहुभाषाविद अनुवादक हैं. ख़ासतौर से हम लोगों के लिए श्रीमती अलेक्स ने रोटियाँ बनाईं. डॉ. अमिताभ जी और अग्रवाल दंपति तीन ही दिन में चावलों से चीं बोल चुके थे, फुलके देखे तो फूल गए. भोजन तो स्वादिष्ट था ही , उन लोगों की आत्मीयता परम स्वादिष्ट थी. उन्हें 'अन्नदाता सुखी भव' का आशीष देकर यूनिवर्सिटी परिसर में लौटे कि एक शोधछात्रा लंबी सी प्रश्नावली के साथ नमूदार हो गईं. मैंने वरिष्ठता के हवाले से डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ को उनके हवाले कर दिया. अभी दो ही सवाल हुए थे कि जनाब यूनस अली रज़ा हाज़िर - 'कैलाशगिरि चलेंगे.' 'एक घंटे बाद चलें?' ' ना ; अँधेरा हो जाएगा'. 'अरे भई, देखते नहीं ,इंटरव्यू चल रहा है'. एक क्षण रुक कर प्रत्युत्पन्न उत्तर - 'इंटरव्यू कार में हो जाएगा'. फटाफट निकल लिए हमलोग. मैं रास्ते भर हरियाली और रास्ता, पानी और पहाड़ देखता रहा. अमिताभ जी प्रश्नोत्तर में मगन रहे. और इस तरह सूरज छिपने से पहले कैलाशगिरि की पहाड़ी पर पहुँच गए.

शिव-पार्वती की श्वेतवर्णी विशाल प्रतिमाएँ सांध्य आकाश को छूती हुईं आशीष बरसाती लगीं. सहज ही अपने संस्कार वश हम दोनों (अमिताभजी और मैं) के कंठ से वंदना के स्वर फूट पड़े. ''वागार्थाविव संपृक्तौ वागर्थः प्रतिपत्तये / जगतः पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ.'' देर तक हम उस औदात्य और सौंदर्य को पीते रहे. अच्छा पिकनिक स्थल बना है, साफ़-सुथरा है, व्यवस्थित भी (फिर भी कई जगह कचरे के ढेर व्यवस्था को मुँह चिढ़ाते लगे). लोग रोप-वे से झौरि झौरि दौरि दौरि आ रहे थे - खिलखिला रहे थे. खिलखिलाने के मौके अब हमने छोड़े ही कितने हैं!

सूर्यास्त को चित्रस्थ करके लौटने लगे तो डॉ. मेजर स्वामी का फ़ोन आ गया. मैं तो भूल ही गया था कि आज दिनछिपे तो हमें पारनंदी निर्मला जी के यहाँ जाना है! 'ओह. बस पहुँचते ही हैं'. सब मिलकर निर्मला जी के आवास पहुँचे. अध्यापन की नौकरी से स्वेच्छा से विश्राम लेकर आजकल पारनंदी निर्मला जी तेलुगु से हिंदी अनुवाद के काम में लगी हुई हैं. बरसों पहले कभी मुलाक़ात हुई थी ; तभी से पत्राचार है. उनके पति गणित के प्रोफेसर हैं - अब अवकाश प्राप्त. बच्चे विदेश में हैं. ये दोनों यहाँ भाषा और साहित्य की सेवा में लगे हैं. शुगर आदि रोगों का वरदान प्राप्त निर्मला जी जाने मुझे क्या समझतीं रहीं हैं. मैंने सोचा भी नहीं था कि मुझे देख कर वे इतनी प्रमुदित, गद्गद , प्रफुल्लित और उतेजित हो जाएँगी. साथ गए सभी मित्र इस विदुषी लेखिका के भोलेपन पर निछावर थे . और मैं? मैं तो डूब ही गया था. उनके निकट फर्श पर बैठ गया मैं ; और वे अपनी अनूदित प्रकाशित और अप्रकाशित चीज़ें छोटे बच्चे की तरह निकाल निकाल कर, उलट पलट कर ,बीच बीच से खोल कर , पढ़ कर, मुझे देर तक दिखाती रहीं. बड़ा काम किया है उन्होंने. साठ से अधिक जिल्दों का अनुवाद किया है; मौलिक लेखन भी किया है हिंदी और तेलुगु दोनों में. रेखाचित्र भी बनाती हैं. एक बार उन्होंने मुझे सरस्वती की अनुकृति भेजी थी और आज महाभारत लिखते हुए गणेश जी का रेखाचित्र भेंट करना चाहती थीं. पति-पत्नी ने भीतर जाकर कुछ बात की और हाथोंहाथ उस चित्र की कई जीरोक्स प्रतियाँ कराके मंगाईं. सबको उनका यह स्नेह प्राप्त करने का सौभाग्य मिला.

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

ऋषिकोंडा : मैं तो घोड़ी चढूँगा

शहर तो अच्छा ही है विशाखापट्टनम .अपने हैदराबाद से छोटा है ,तो शांत भी है.लोग भी भले हैं - अपनेपन से आतिथ्य निभाने वाले [अपवादस्वरूप 'शिविर' संयोजक स्थानीय संस्था की सर्वोच्च पदाधिकारी को छोड़कर]. मेरे तो कई सारे साहित्यिक मित्र और शिष्य भी हैं वहाँ. जिस बात का खतरा था वही हुआ. ट्रेन पर यूनस और अनुपमा अपने अपने जीवनसाथी और गाड़ी के साथ उपस्थित थे. दोनों का मीठा सा झगड़ा हुआ , पर गुरूजी को दो हिस्सों में बाँटने जैसी बुद्धिमत्तापूर्ण दुर्घटना नहीं हो सकी. तय हुआ कि आतिथ्य का प्रथम सौभाग्य सौभाग्यवती अनुपमा तिवारी को मिले. उनके घर से विदा होकर शिविरस्थल पर पहुँचे तो व्यवस्था संतोषजनक न लगने के कारण प्रिय यूनस अली रज़ा अपने आवास पर ले जाने की ज़िद पर अड़ गए. जाना पड़ा. गीता बेहद खुश थी [दरअसल यूनस-गीता मेरे पहले बैच के छात्र हैं. सहपाठी रहे; प्रेम किया ; विवाह किया - अंतरजातीय ].

मैं तो ठहरा कमराजीवी जंतु. कहीं भी जाता हूँ तो काम-धाम पूरा होने के बाद कमरा बंद करके सो जाता हूँ. लेकिन सब तो ऐसे असामाजिक प्राणी नहीं होते. घर से बाहर आते हैं तो घूमते-फिरते हैं, धर्म-लाभ करते हैं, पिकनिक मनाते हैं, दृश्यावलोकन करते हैं, और करते हैं ढेर सारी फोटोग्राफी - हर दृश्य पर अपने आपको डाल कर. डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ यद्यपि बहुत उत्सुक न थे लेकिन डॉ. अनुसूया अग्रवाल अपने बैंकाधिकारी पतिदेव के साथ आई थीं , तो स्वाभाविक था कि वे कुछ तो पिकनिक जैसा चाहती ही थीं. सयोजकों को कई बार इशारा भी किया गया, पर उन्होंने तो जैसे इशारों की भाषा सीखी ही नहीं थी. ऐसे में जब अचानक यूनस ने ऋषिकोंडा समुद्रतट चलने का प्रस्ताव रखा तो मानो कल्पवृक्ष ही मिल गया.

सचमुच अलग है ऋषिकोंडा. गोवा. मुंबई, चेन्नई, कोवलम और पांडिचेरी से यहाँ का समुद्र इस अर्थ में अलग प्रकृति का बताया जाता है कि शोर अधिक नहीं करता पर चोर किस्म का है. चुपचाप विशाल फन फैलाए व्यालों सी लहरें बेहद खतरनाक हैं. खैर , प्रकृति के तत्व के निकट पहुँचते ही मनुष्य जिस तरह सहज हो जाता है, हम भी होगए - बचपना अचानक छलकने लगा. पानी का भी मज़ा लिया और रेत का भी. हममें सबसे बुजुर्ग थे अमिताभ जी, वही सबसे ज्यादा किलक रहे थे. लौटने लगे तो बोले - बिना काव्यपाठ के जाएँगे ! तो जम गई कविता की बैठक - रेत पर अलग अलग आकार के केकड़े रेंग रहे थे, हम लोग उनके बिलों पर विराजमान थे; पर शायद हिंदी के कवि समझकर उन्होंने हम पर कृपादृष्टि नहीं की!

सूरज छिप चला था, हम भी चलने लगे ; तो प्रदीप कुमार अग्रवाल जी मचल उठे - मैं तो घोड़ी चढूँगा. अनुसूया जी ने आज्ञा दे दी.

सोमवार, 16 नवंबर 2009

विशाखपट्टनम में नवलेखक शिविर संपन्न



केंद्रीय हिंदी निदेशालय और विशाखापत्तनम की संस्था हिंदी साहित्य किरण के संयुक्त तत्वावधान में २२ अक्टूबर से २९ अक्टूबर [२००९] तक आठ दिवसीय हिंदी नवलेखक शिविर का आयोजन किया गया. डॉ. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद द्वारा उद्घाटित इस शिविर में आंध्र प्रदेश के अतिरिक्त महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश से आए हिंदीतरभाषी हिंदी नवलेखकों ने विभिन्न विधाओं में साहित्यसृजन का प्रशिक्षण प्राप्त किया और आलग अलग कार्यशालाओं में विषयकेंद्रित लेखन का अभ्यास किया. शिविरार्थियों के मार्गदर्शन के लिए आमंत्रित विशेषज्ञ डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ [अलीगढ़] ,प्रो.ऋषभ देव शर्मा [हैदराबाद] तथा डॉ.अनुसूया अग्रवाल [महासमुंद] ने नवलेखकों की रचनाओं में संशोधन करने के अलावा उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास, उसकी अद्यतन प्रवृत्तियों और भाषाप्रयोग में निहित सृजनात्मकता के संबंध में जानकारी दी.


शिविर के विविध सत्रों में प्रो. आदेश्वर राव, प्रो.शेषारत्नम ,प्रो. सीतालक्ष्मी, प्रो.मेहरून, डॉ.मेजर सी.एन. स्वामी, डॉ.हेमलता राव,डॉ.कृष्ण बाबू और डॉ. नरसिम्हाराव ने उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक और
अनुवाद के विविध पहलुओं पर
व्याख्यान दिए.








लिपि के निशाने पर : गोरिल्ला




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रविवार, 18 अक्तूबर 2009

प्रकाश की तरंगें छोड़तीं पदचिह्न



''प्रकाश की तरंगें
छोड़तीं पदचिह्न

समय के खेत तक
पहुँचा सकते हैं वे हमें

लेकिन
चलना तो हमें ही होगा
किसान की तरह
सधे कदमों से
अपने खेत की मिट्टी की
पुकार सुनते ही

क्या तैयार हैं हम ?''

>>>>>>> देवराज

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

दक्खिनी हिंदी की परंपरा : ‘ऐब न राखें हिंदी बोल’

तूँ कहाँ का है, इस जागाँ तूँ क्यों आया? इस शहर को बाट तूँ क्यों पाया? तुझे कौन दिखलाया?’’ xxx ‘‘सो उस दिलरुबा नार कूँ, दीदियाँ के सिंघार कूँ, चतुर चैसार कूँ, एक सहेली थी,भौत छबीली थी, रात रंगीली थी। नाँव उसका ज़ुल्फ़ था, लट साँवली निपट, रंग कूँ काली, घूँगर वाली।’’

दक्खिनी हिंदी के लेखक वजही (1609) द्वारा रचित गद्य के ये अंश यह सोचने पर विवश करते हैं कि यदि दक्खिनी में 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गद्य का यह रूप था तो उस समय के उत्तर के हिंदी रचनाकार ऐसा गद्य क्यों नहीं लिख पाए! स्मरणीय है कि यह समय महाकवि तुलसीदास का समय है। इस प्रश्न से टकराए बिना यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली के गद्य का उदय 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से मानते हैं, तो बड़ी ऐतिहासिक भूल करते हैं। कोई कड़ी है जो बीच से निकल गई है या जानबूझ कर निकाल दी गई है! इस निकली हुई कड़ी का नाम है दक्खिनी’|

खड़ी बोली के साहित्य को भारतेंदु काल से आरंभ मानते हुए प्रायः यह याद कर लिया जाता है कि कभी अमीर खुसरो ने भी इस भाषा में काव्य रचना की थी परंतु उसकी कोई परंपरा न मिलने के कारण उन्हें किसी प्रवर्तन का श्रेय नहीं दिया जाता। गद्य में तो और भी खस्ता हालत है। ब्रज और राजस्थानी के गद्य की चर्चा तो मिलती है लेकिन खड़ी बोली के गद्य की कहीं गंध तक इतिहासकारों को नहीं मिल पाई है। ऐसा इसलिए है कि इतिहासकारों ने लिपि भेद के कारण दक्खिनी के साहित्य की ओर लंबे समय तक ध्यान ही नहीं दिया जबकि दक्खिनी में चैदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक अत्यंत समृद्ध पद्य और गद्य की परंपरा प्राप्त होती है। इसका कारण यह हो सकता है कि यह काल जहाँ उत्तर भारत में ऐसी उथल-पुथल का था जिसमें साहित्य लगभग पूरी तरह धर्माश्रित और लोकाश्रित था, वहीं दक्खिन के शासक अपने समय की सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भागीदार थे और राज्याश्रय में दक्खिनी के लेखन का भरपूर पोषण हो सका।

खड़ी बोली के गद्य को भारतेंदु काल से आरंभ मानने से पहले इस तथ्य पर ध्यान देना ज़रूरी है कि दक्खिनी साहित्य के पहले साहित्यकार ख्वाज़ा बंदानेवाज गेसूदराज से आरंभ होकर दक्खिनी हिंदी की गद्य परंपरा मीराँजी, शमसुल उश्शाक, बुराहानुद्दीन जानम, औार मुल्ला वजही से होते हुए एक विस्तृत विरासत कायम करती है। यह विरासत सही मायने में खड़ी बोली की विरासत है क्योंकि दक्खिनी हिंदी और खड़ी बोली मूलतः अभिन्न हैं। यदि इस विरासत को विधिवत विश्लेषित किया जाए तो साफ हो जाएगा कि अमीर खुसरो खड़ी बोली में लिखने वाले अकेले रचनाकार नहीं थे, उनके बाद एक पूरी परंपरा थी - गद्य और पद्य दोनों की पूरी परंपरा।

यह पूछा जा सकता है कि जब अवधी और ब्रज भाषा में आध्यात्मिक और शृंगारिक साहित्य रचा जा रहा था उस समय खड़ी बोली विकास की किस दशा में थी। इसके उत्तर में याद करना होगा उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को जिनमें अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक की दक्षिण विजय के साथ उत्तर से अनेकानेक मुस्लिम सामंतों, सैनिकों और शिल्पकारों को दक्षिण आना पड़ा। इन्हीं के कारण दक्षिण में गुलबर्गा, गोलकोंडा और बीजापुर के इलाके में खड़ी बोली की कविता आरंभ हुई - यह लगभग वही समय था जब मिथिलांचल में विद्यापति की पदावली गूँज रही थी। इसका अर्थ हुआ कि खड़ी बोली काव्य परंपरा 1850 ई. के बाद अचानक नहीं फूट पड़ी,बल्कि उसकी विकासधारा विद्यापति के काल से ही समांतर प्रवाहित हो रही थी। इतना ही नहीं दक्खिन में आ बसे इन रचनाकारों ने अपनी काव्य भाषा को एकाधिक स्थलों पर विधिवतहिंदवीऔर हिंदीकहा है। जैसे -

‘‘बाचा कीना हिंदवी में।’’ (अशरफ़, 1503 ई.)

‘‘यह सब बोलूँ हिंदी बोल।

पन तूँ अन भौ सेती खोल।।

ऐब न राखें हिंदी बोल।

माने तूँ चख देखें खोल।।’’ (बुरहानुद्दीन जानम, 1522 ई.)

उर्दू साहित्येतिहासकार एहतेशाम हुसैन ने बुरहानुद्दीन जानम के पिता मीरान जी के हवाले से बताया है कि उन्होंने भी अपनी भाषा को स्वयं हिंदी कहा है और यह भी लिखा है कि मेरी ये रचनाएँ उन लोगों के लिए हैं जो अरबी-फारसी नहीं जानते। अरबी-फारसी की परंपरा से जोड़ कर हिंदी की परंपरा से काट दिए गए इन विस्मृत रचनाकारों के दर्द को समझने के लिए यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि महात्मा तुलसीदास के समकालीन कवि अब्दुल गनी ने घोषणापूर्वक कहा था कि मेरी भाषा तो हिंदवी और देहलवी है, मैं अरब और फारस की कथा नहीं जानता -

‘‘ज़बाँ हिंदवी मुझसो होर देहलवी।

न जानूँ अरब और अजम मस्नवी।।’’ (अब्दुल गनी)

यहाँ प्रसंगवश हिंदवीशब्द की व्याप्ति को समझने के लिए यह उल्लेख किया जा सकता है कि ग़ालिब ने जब फारसी से हटकर उर्दू में काव्य सृजन आरंभ किया तो उन्होंने अपनी भाषा को उर्दू नहीं, हिंदवी कहा था।

अस्तु, दक्खिनी के गद्य-पद्य की परंपरा के विहंगावलोकन से यह बात साफ है कि‘‘हिंदी भाषा का विकास और उसमें साहित्य रचना का कार्य केवल उत्तर भारत में ही नहीं हुआ है। दक्षिण भारत की मुसलमानी रियासतों, उनके शासकों एवं उनके दरबार के तथा अन्य साहित्यकारों का भी इसमें महत्वपूर्ण हाथ है। मुसलमान फकीरों, सैनिकों और राज्य संस्थापकों के द्वारा साहित्यिक हिंदी दक्षिण भारत में पहुँची थी और पंद्रहवीं शताब्दी तक उसमें उच्च कोटि का साहित्य निर्मित होने लगा था।’’ (डॉ. धीरेंद्र वर्मा)। दुर्भाग्य यह रहा कि इस साहित्य का बड़ा भाग अभी तक भी देवनागरी लिपि में प्रकाशित नहीं है, अन्यथा खड़ी बोली की खोई हुई कड़ी की पहचान कभी की हो गई होती। इस दिशा में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन का है।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि ‘‘जब उत्तर भारत में फारसी का प्रभुत्व बना रहा तो दक्षिण में दक्खिनीका। हिंदी ने जो कदम दक्खिनी में जमाए उन्हें फारसी हिला न सकी। सुप्रसिद्ध इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि बहमनी राज्य के दफ्तरों में हिंदी जबान प्रचलित थी और सल्तनत ने उसे सरकारी जबान का पद दे रखा था। बहमनी राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के बाद हिंदी का यह पद उत्तराधिकार में रियासतों ने कायम रखा।’’ (डॉ. बाबूराम सक्सेना)।

यहाँ यह जानना रोचक हो सकता है कि हाब्सन-जाब्सन कोश (1886) में दक्खिनी को हिंदुस्तान की एक विचित्र बोली मानते हुए इसे दक्खिनी देश की स्वाभाविक भाषाकहा गया है,जो देश की तत्कालीन स्वाभाविक भाषा हिंदवी अथवा हिंदी की एक शैली थी। यहाँ दक्खिनी और उर्दू के संबंध का प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘दक्खिनसे अभिप्राय बहमनी साम्राज्य के विभिन्न भागों से रहा है - बरार, बीदर, गोलकोंडा, अहमदनगर और बीजापुर। उत्तर भारत से आए मुसलमानों के साथ यहाँ दिल्ली से खड़ी बोली का आगमन हुआ और क्रमशः मुल्ला वजही तथा कुलीकुतुब शाह आदि के माध्यम से उसका साहित्यिक रूप भी विकसित हुआ जिसे 17वीं शताब्दी तक आते-आते दक्षिण में बसे हुए उत्तर भारतीय मुसलमानों की साहित्यिक भाषाकी प्रतिष्ठा मिल गई। ‘‘इसी काल के आसपास जब औरंगजेब के आक्रमणों के समय मुगल सेनाओं के माध्यम से दिल्ली में बोली जानेवाली हिंदुस्तानी (अथवा हिंदुस्थानी) दक्खन के इस क्षेत्र के संपर्क में आयी, तब पहले से दक्खन में बसे उत्तर भारतीय मुसलमानों में प्रचलित हिंदुस्तानी से भिन्नता को स्पष्ट करने के लिए इस परवर्ती बोली का नाम ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला (शाही डेरे की भाषा) रखा गया। बाद में इसी नाम का संक्षिप्त रूप उर्दूप्रचलन में आ गया।’’ (सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या )|

आज दक्खिनी हिंदी के नाम में निहित दक्खिन से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ भागों का अर्थ लिया जाता है जिनमें कई शताब्दियों तक संस्कृतियों और भाषाओं का ऐसा संगम होता रहा जो भारत राष्ट्र की सामासिकता का आदर्श है। यह अध्ययन का विषय है कि दक्खिनी के मध्यकालीन साहित्यिक रूप और आधुनिक व्यावहारिक रूप के निर्माण में हिंदी की बोलियों के साथ-साथ तेलुगु, मराठी और कन्नड़ की भाषिक परंपराओं का प्रभाव किस प्रकार सक्रिय रहा है।

भाषावैज्ञानिक लक्षणों के आधार पर निर्विवाद रूप से यह माना जाता है कि दक्खिनी हिंदीवास्तव में हिंदी का ही रूप है। हिंदी की ध्वनियों के साथ फारसी की कुछ ध्वनियाँ भी इसमें शामिल हैं। खड़ी बोली की तरह स्त्रीलिंग संज्ञाओं में याँ का जुड़ना भी इसे खड़ी बोली कुल में शामिल करता है। इसमें अनेक बोलियों के शब्दों की विद्यमानता का कारण यह है कि 13 वीं से 16 वीं शताब्दी तक उत्तर से दक्षिण आनेवाले सैनिकों, साधुओं और व्यवसायियों में अधिकतर पंजाब, बांगरू प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते थे। इनके साथ दक्षिण में आई भाषा इसीलिए अनेक बोलियों का समूह प्रतीत होती है जो पुनः सामासिकता का प्रमाण है तथा दक्खिनी हिंदी के असांप्रदायिक और राष्ट्रीय चरित्र के मूल में है। इस भाषा के रचनाकार ही वस्तुतः खड़ी बोली के प्रारंभिक प्रयोक्ता साहित्यकार थे। यदि उन्हें उर्दू के भी आदिकवि कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। ‘‘इस प्रकार खड़ी हिंदी के सर्वप्रथम कवि यही दक्खिनी कवि थे। एक ओर उन्होंने बोलचाल की कौरवी (खड़ी बोली) को साहित्यिक भाषा का रूप दिया, तो दूसरी तरफ उनकी कृतियों ने उर्दू कविता का प्रारंभ किया।’’ (राहुल सांकृत्यायन)|

अतः 14वीं शताब्दी के ख्वाज़ा बंदानेवाज़ खड़ी बोली (हिंदी और उर्दू, दोनों) के आदिकवि हैं जिन्हें अमीर खुसरो (13वीं शती) का वास्तविक उत्तराधिकारी माना जा सकता है।18वीं शताब्दी के वली को प्रायः उर्दू का पहला कवि कहा जाता है परंतु यह ध्यान में रखना होगा कि वे दक्कन में रह चुके थे और दक्खिनी की साहित्यिक परंपरा से परिचित थे अर्थात् उनके माध्यम से दक्खिनी की साहित्यिक परंपरा उर्दू के रूप में उत्तर पहुँची। यदि शुद्धतावादी आग्रहों ने विवाद न खड़े किए होते तो यह पूरी विकासधारा इस तथ्य को सहज प्रमाणित करने वाली मानी जाती कि उर्दू हिंदी की ही एक शैली है, न कि पृथक भाषा।

दक्खिनी हिंदी के साहित्य की जब भी चर्चा होगी, उसके सामासिक और धर्म निरपेक्ष स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकेगी। भाषा और संस्कृति दोनों ही स्तरों पर यह साहित्य भारतीयता से अनुप्राणित है। चाहे ऋतु वर्णन का प्रसंग हो अथवा नायिका भेद का संदर्भ, यह साहित्य संस्कृत से अपभ्रंश तक की परंपरा से जुड़ा प्रतीत होता है। कुली कुतुब शाह ने तो एक नायिका का नामकरण ही हिंदीकिया है -

‘‘रंगीली साईं, ते तूँ रंग भरी है।

सुगड़ सुंदर सहेली गुन भरी है।।

लटकना बिजली निमने उस सुहावै।

वो हिंदी छोटी बहुछंद शहपरी है।।’’ (कुली कुतुब शाह)।

इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि इन सब तथ्यों को ध्यान रखते हुए हिंदी और उर्दू साहित्य का समग्र और अखिल भारतीय इतिहास लिखा जा सके तो वह इस देश की सामासिक संस्कृति का दर्पण होगा। स्मरणीय है कि दक्खिनी हिंदी काव्यधारा’ (1958) के माध्यम से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस प्रकार के इतिहास लेखन का मार्ग पहले ही प्रशस्त कर दिया है। उन्होंने इस कृति में दक्खिनी हिंदी काव्यधारा को आदिकाल (1400-1500 ई.), मध्यकाल (1500-1657 ई.) और उत्तरकाल (1657-1840 ई.) में विभाजित किया है तथा दक्खिनी हिंदी के 36रचनाकारों की रचनाओं को संकलित किया है। इन रचनाकारों में शामिल हैं -

आदिकाल - बंदानेवाज़, शाह मीराँजी, अशरफ़, फ़ीरोज़, बुरहानुद्दीन जानम, एकनाथ, शाह अली और वजही।

मध्यकाल - मुहम्मद कुल्ली, अब्दुल, अमीन, गौवासी, तुकाराम, मीराँ हुसैनी, अफज़ल,मुक़ी जी, कुतुबी, अब्दुल्लाह कुतुब, सनअती, ख़ुशनूद, रुस्तमी और निशाती।

उत्तरकाल - नस्रती, मिराँजी ख़ुदानुमा, तबई, गुलाम अली, इशरती, जईफ़ी, मुहम्मद अमीन, वज्दी, वली दकनी, वली वेल्लोरी, हाशिम अली, क़यासी, बाकर आगाह और तुराब दखनी।

महापंडित सांकृत्यायन के बाद हिंदी और उर्दू में यद्यपि बहुत से शोध कार्य दक्खिनी हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर हुए हैं, परंतु वे अपर्याप्त हैं। अभी भी इस क्षेत्र में अध्ययन और शोध की विपुल संभावना है।

- एक तो यह कि दक्खिनी का बहुत सारा साहित्य (गद्य और पद्य) लिप्यंतरण और पाठ संपादन की प्रतीक्षा में पड़ा हुआ है - जाने कब उसका उद्धार हो!

- दूसरे यह कि हिंदी, उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य के साथ दक्खिनी का तुलनात्मक अध्ययन भारतीय साहित्य की संकल्पना को साकार करने के लिए बेहद ज़रूरी है।

- तीसरे यह कि दक्खिनी हिंदी के साहित्य में संस्कृत परंपरा से चली आती काव्य रूढ़ियों और अरबी-फारसी की काव्य रूढ़ियों का जो समन्वय हुआ है उसका व्यापक अनुशीलन अभी शेष है जो निश्चय ही सांस्कृतिक एकता की पुष्टि का सुदृढ़ आधार बन सकता है।

- इसी प्रकार अध्ययन की चौथी दिशा यह हो सकती है कि दक्खिनी हिंदी की भाषिक संरचना के निर्माण में हिंदी की बोलियों के साथ-साथ दक्षिण की भाषाओं के योगदान को विश्लेषित किया जाए।