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रविवार, 1 फ़रवरी 2009

अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है, एक दीप जलाएँ!


पुस्तक चर्चा : 
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अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है, एक दीप जलाएँ!
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पत्रकारिता ने सूचना और मनोरंजन के अलावा सामाजिक परिवर्तन में अग्रणी भूमिका निभाई है. आज की व्यावसायिक पत्रकारिता की अनेक विकृतियों के बावजूद इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता. बल्कि तथ्य तो यह है कि पूरी तरह बाजारीकरण के आज के दौर में भी ऐसे पत्रकार और सम्पादक विद्यमान हैं जो लाभ और लोभ के लिए नहीं वरन समाज और राष्ट्र के लिए पत्रकारिता करते हैं.राष्ट्रीय चेतना के ऐसे पक्षधर और मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित ऐसे पत्रकारों का लेखन तात्कालिक प्रासंगिकता के बावजूद व्यावसायिक लेखन  जैसा क्षणजीवी नहीं होता, बल्कि उसका मूल्य काल की कसौटी पर चढ़कर और भी खरा साबित होता है. यही कारण है कि किसी भी सामाजिक - राष्ट्रीय चेतना संपन्न सजग पत्रकार का लेखन समाज को नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ होता है और इसीलिये प त्र - पत्रिका के स्तम्भ की सामग्री के ही नहीं वरन स्थायी महत्त्व की पुस्तकीय सामग्री के रूप में भी उसकी उपादेयता असंदिग्ध होती है.





''समकालीन सम्पादकीय''* सिद्धेश्वर के ऐसे ही लेखन का प्रमाण है. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धेश्वर अपने सुदीर्घ पत्रकार-जीवन में 'प्रहरी','संघमित्रा',राष्ट्रीय विचार पत्रिका' और 'विचार दृष्टि' जैसी सोद्देश्य पत्रिकाओं के सम्पादक रह चुके हैं / हैं. अपने सम्पादकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए समय-समय पर लिखित उनके सम्पादकीय अब एक स्थान पर सकलित होकर इस पुस्तक के रूप में आए हैं. सम्पादकीयों का यह संकलन लेखक के व्यक्तित्व और चिंतन की कई सारी तहों से परिचित तो कराता ही है ,नई पीढी में राष्ट्रीय चेतना के संस्कारों का संचार करने में उनके लेखन के सामर्थ्य को भी उजागर करने वाला है.




इसमें संदेह नहीं कि सिद्धेश्वर ने ३८२ पृष्ठ के इस ग्रन्थ में संकलित सम्पादकीय आलेखों / टिप्पणियों / निबंधों में बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक और इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशक भारतीय परिदृश्य में समाज,साहित्य,संस्कृति और राजनीति का सटीक विवेचन- विश्लेषण किया है क्योंकि ये चारों ही उनके प्रिय विषय रहे हैं.जैसा कि लेखक ने स्वयं स्पष्ट किया है, इन सम्पादकीयों पर किसी प्रकार के दार्शनिक भावः वाद की अपेक्षा सामाजिक दृष्टिकोण का प्रभाव स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है. सामाजिक प्रश्नों को संबोधित ये लेख जनसाधारण के जीवन-यथार्थ से अनुप्राणित हैं ;और उसे ही संबोधित भी.लेखक की मान्यता है कि आज हमारे समाज को भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता के नाम पर वैचारिक शून्यता के गर्त में धकेला जा रहा है.निश्चय ही इस स्थिति से उबरने के लिए वैचारिक स्वराज्य का निर्माण अत्यावश्यक है.यही हमारे विचार से  आज के समय जागरूक लेखन का भी दायित्व है. इसके लिए लेखक ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के चरित्र को अनुकरणीय राष्ट्रीय आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है और राष्ट्रीय अखण्डता को अपने सम्पादकीय लेखन का सर्वोपरि सरोकार बनाया है.




छः खंडों में नियोजित इस ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर लेखक की यह चिंता व्यक्त हुई है कि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीयों की ''भारतीयता'' की चेतना का निरंतर ह्रास हुआ है और 'भारतीयम' पर तरह-तरह के'अहम्' हावी होते चले गए हैं.सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमारा समाज इतने टुकडों में बँट गया है कि एक सम्पूर्ण राष्ट्र की संकल्पना व्यर्थ प्रतीत होने लगी है.अलगाव वादियों,देश द्रोहियों और आतंक वादियों के हाथ इतने लंबे हो चुके हैं कि खासोआम सब एक जैसी असुरक्षा झेलने को अभिशप्त हैं.प्राय: ऐसा लगने लगा है जैसे यह देश व्यवास्थाविहीन होकर अब उग्रवादियों के रहमोकरम पर जिंदा है! इस स्थिति के लिए लेखक ने स्वार्थी राजनीति को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना है.





इन परिस्थितियों में सामाजिक-राष्ट्रीय जागरण का अपना प्रारूप प्रस्तुत करते हुए सिद्धेश्वर का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि '' विचारवान,समझदार भले मानुषों और विचार शील बुद्धिजीवियों को पहल्कारी कदम बढाकर आगे आना होगा.वे आख़िर कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे मूक दर्शक बने रहेंगे? अँधेरा सिर्फ़ इसलिए तो नहीं छंट जायेगा कि कोई नेक आदमी उजाले की प्रतीक्षा में बैठा है.अतएव समाज और देश में व्याप्त घटाटोप अन्धकार को हटाने के लिए हमें प्राचीन सूत्र अप्प दीपो भव के अनुसार शब्दशः स्वयं दीपक बन कर प्रकाशित होने का पुरुषार्थ करना होगा.अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है , एक दीप जलाएं.''



राष्ट्रीयता के विचार रूपी इस दीप को जलाये रखने के प्रयास के साकार रूप के तौर पर सिद्धेश्वर के इस ग्रन्थ
का देश भर में व्यापक हार्दिक स्वागत होगा ,इसमें संदेह नहीं.

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* समकालीन सम्पादकीय / सिद्धेश्वर / सरदार पटेल साहित्य प्रकाशन,यू-२०७, शकरपुर , विकास मार्ग , दिल्ली - ११००९२/ २००८ / रु. ४०० मात्र / ३८४ पृष्ठ [सजिल्द]

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