फ़ॉलोअर

सोमवार, 10 मई 2010

चर्चा - लाज न आवत आपको

गत दिनों स्त्रीविमर्श, ऋषभ की कविताएँ और हिंदी-भारत समूह पर एक छोटी-सी कविता दी थी - लाज न आवत आपको, विस्मय कि उसपर काफी चर्चा हो गई. कवि का अपना पाठ तो कविता है, यों अपनी ओर से कुछ नहीं कहना है. लेकिन पाठक कि रचना धर्मिता और किसी भी रचना के अनेक पाठों और उप-पाठों की संभावना का सम्मान करते हुए यह आवश्यक लगा कि चर्चा को यहाँ जस-का-तस सहेज दिया जाए.

प्रिय ऋषभ देव जी,
नारी-मन की त्रासदी को बड़ी कुशलता और मर्मज्ञता के साथ
आप ने इस कविता में उकेरा है | शब्दों को कोई जामा पहनाये बिना
हकीकत को उसके असली रूप में इतनी शिद्दत से बयाँ कर देने का
आपका साहस वन्दनीय है |
सस्नेह
कमल (सत्यनारायण शर्मा कमल)

क्या कविता लिखी है आप ने सर जी. रोंगटे खडे हो गये पढकर . लाज न आवत आपको ....
मेरे पास शब्द नही हैं इसकी प्रशंसा करने के लिए . इस अकिंचन की हार्दिक बधाई स्वीकार करें .
वेंकटेश (प्रो. एम. वेंकटेश्वर)

कविता बेचॆन करती हॆ । तुलसी की याद कराते हुए भी प्रासंगिक हॆ । निराला धिक शब्द का प्रयोग करते हॆं ।बधाई ।
दिविक रमेश

आ० दिविक जी,
मेरे विचार से कविता में संकेत "बिल्वामंगल" की ओर है
न कि तुलसी कि ओर |
कमल

धन्यवाद कमल जी । मॆंने केवल इतना कहना चाहा था कि तुलसी की याद कराती हॆ यह कविता ।
दिविक रमेश

आदरणीय दिविक जी .
मै आपसे सहमत हूं. यह कविता सीधे तुलसी और रत्नावली के प्रसंग को ताज़ा करती है. उत्तर-आधुनिक परिवेश में ( तथाकथित ) यह एक प्रखर स्त्री विमर्श की कविता है.
एम वेंकटेश्वर

बिल्वमंगल शायद अगली किसी कविता में आयेंगे.
इस कविता के समय तो बस मन में थे.....अगली योजना की तरह. -ऋ
सुगठित और पूर्ण प्रस्तुति
-निधि ऋषि

आदरणीय,
इस कविता का कथ्य तो बहुत अच्छा लगा, रचना अत्यन्त सशक्त भी है। किन्तु प्रथम तीन चरणों को पढ़कर मन विक्षुब्ध सा हो गया।
(इसे छोटे मुँह बड़ी बात न समझें तो मैं कहना चाहूँगी कि) ऐसी प्रतीति हुई कि कदाचित् किसी कुत्ते की बात हो रही है । उसकी भाषा से ऐसी वितृष्णा सी हुई कि ये विश्वास करना कठिन हो गया कि ये आपकी उत्कृष्ट लेखनी से उद्भूत है। आशा है आप मेरी धृष्टता को क्षमा करेंगे। खेद है कि मैं अपने मन की बात को कहने से- स्वयं को रोक नहीं सकी। कृपया इसे आलोचना समझ कर अन्यथा न लें ।
पुनः क्षमा-याचना सहित,
शकुन्तला बहादुर

शकुन्तलाजी,
आपकी प्रतिक्रिया सर्वथा उपयुक्त है .
मैं भी कुछ ऐसे ही शब्द इस्तेमाल करना चाहता था, मैं लिखता;
" आपकी कविता(?) वीभत्स है, विचारों का घालमेल है, न तो कविता है, न सौन्दर्य न सरसता...,"
फिर सोचा कि प्रतिक्रिया न देना अधिक अच्छा होगा . इसलिए नहीं लिखा .
किन्तु अब आपकी प्रतिक्रिया से प्रेरित और उत्साहित होकर अब लिख रहा हूँ .
सादर,
विनय वैद्य

विनय वैद्या जी,
आपके विचार जानकर मेरा मनोबल बढ़ा । ये सन्तोष भी हुआ मेरे जैसे विचार किसी और पाठक के भी हैं। प्रायः प्रशंसा-पत्र ही दिखाई दिये थे। अस्तु....
"मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।"
आभार सहित,
शकुन्तला बहादुर

सोच अपनी अपनी / समझ अपनी अपनी
पुरुष की अन्तश्चेतना में नारी देह की गन्ध ऐसे ही बस जाती है जैसे
ऋषभदेव जी ने अपनी कविता में सुंघाई है. काम का उन्माद जब सर चढकर बोलता है तो लाश और सांप कुछ पहचाने नहीं जाते . और जब औरत आईना दिखाती है तो पुरुष भाग खडा होता है जैसे तुलसीदास ?
-एम वेंकटेश्वर

आदरणीय कमल जी, वेंकटेश जी और ऋषभ जी,
अपनी अल्पमति से कहना चाहूँगी कि कविता किसी व्यक्तिविशेष से सीधे सीधे नहीं जुड़ी होती हैं। यदि उसमें कोई नाम आएँ तब भी वे नाम वस्तुत: प्रतीक होते हैं या मिथक भी होते हैं .....
.. और यहाँ तो नाम आए ही नहीं। ऐसे में इसे किसी इतिहास-चरित्र मात्र के साथ जोड़ना मानो ऐसा है कि कविता की लक्षणा की हत्या की जा रही हो, उसे बाँधा जा रहा हो, सीमित किया जा रहा हो।
मेरे लेखे तो कविता ऐसी हर उस नारी का प्रतिदर्श है, जो वैसी विकट स्थिति में पड़ी है, खड़ी है, गड़ी है। कविता की अर्थ व्याप्ति को कम करने जैसा है इसे रत्नावली, बिल्वमंगल आदि नाम से जोड़ कर देखना।
गलत कह गई होऊँ तो छोटी समझ कर क्षमा करें। आप सब विद्वान लोग हैं, सो अन्यथा नहीं लें।
सादर
- कविता वाचक्नवी

आदरणीय कविता जी,
कविता में ध्वन्यार्थ तो होता ही है. और फ़िर एक रूपक भी बनता है, जिससे जो प्रसंग य संदर्भ ध्वनित होते हैं उनके बारे में चर्चा करना या अपनी राय देना गलत नहीं , आप भी अन्यथा न लें.
एम वेंकटेश्वर


सर्वआदरणीय दिविक रमेश जी, एम. वेंकटेश्वर जी, कविता वाचक्नवी जी, सत्यनारायण शर्मा कमल जी,प्रतिभा सक्सेना जी,शकुंतला बहादुर जी एवं विनय वैद्य जी ,
सादर नमन.
आप सबकी तथा डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण',समीर लाल जी,संजय भास्कर जी,सतीश सक्सेना जी, अनूप शुक्ल जी,सुमन जी और एम. वर्मा जी की समीक्षात्मक टिप्पणियों/पाठ विमर्श के लिए आभारी हूँ .
स्नेह बना रहे
-ऋ

प्रिय डा. रिषभ देव,सस्नेह!
बहुत प्यारी रचना रत्नावली पर तुमने भेजी है,भावपूर्ण है,जीवंत है!
अपनी एक कविता तुम्हे भेज रहा हूँ, अच्छी लगेगी,आशा है! -

रत्नावली का सच

मैंने चाहा था तुमको प्रियतम!
मनसे,तनसे प्रतिपल,
हरक्षण की थी कामना
तुम्हे पाने की,
तुम्ही में खो जाने की,
लेकिन-
तुम जिस रात आए,
मेरे प्रेम-पाश में बंधने,
मुझे उपकृत करने-
उस रात,
मैं मायके में थी न?
बेटी की मर्यादा
मेरे पैरों को रोक रही थी
जंजीर बन कर!
उस रात मेरे भीतर बैठी-
मर्यादित नारी जाग उठी थी
और उस नारी ने कह दिया था--
"लाज न आवत आपको"
और बस,
तुम लौट गए थे हत 'अहम्' लेकर!
मैं-
मर्यादा में जकड़ी,तड़फती रही!
सच कहूं मेरे प्रिय!
उस रात जीत गई थी नारी
और हार गई थी तुम्हारी पत्नी-
रत्नावली बेचारी!
संसार ने पाया महाकवि तुलसी-
रत्नावली रह गई युगों से झुलसी-
तन और मन की आग से!
यही है रत्नावली का सच,
जिसे तुम भी नहीं जान सके मेरे प्रिय!
--------------------------------
डा.योगेन्द्र नाथ शर्मा'अरुण'

आदरणीय डा.ऋषभ देव एवं डॉ. अरुण की कविताएं मेरी लेखनी को ,कुछ कहने के लिए, प्रेरित कर गई ,प्रस्तुत है -

रत्ना की चाह --

केवल तुम्हारी थी .
थोड़ा-सा आत्म-तोष चाहता रहा था मन
पीहर में पति- सुख पा इठलाती बाला बन
मन में उछाह भर ताज़ा हो जाने का ,
बार-बार आने का ,
अवसर,
सुहाग-सुख पाने का .
*
थोड़ा सा संयम ही
चाहा था रत्ना ने ,
भिंच न जाय मनःकाय
थोड़ा अवकाश रहे,
खुला-धुला ,घुटन रहित ,
नूतन बन जाए
पास आने की चाह .
*
कैसे थाह पाता
विवश नारी का खीझा स्वर
तुलसी ,तुम्हारा नर!
स्वामी हो रहूँ सदा
अधिकारों से समर्थ
पति की यही तो शर्त !
*
सह न सके .
त्याग गए कुंठा भऱ .
सारा अनर्थ-दोष
एकाकी नारी पर !

- प्रतिभा सक्सेना.

Param Priy Dr. Rishabh,
Sasneh.
Kal tumhari kavita "Laaj na avat apko" itni achchhi lagi ki main apni ek kavita bhejne ka lobh samvaran nahi kar saka,jo "Ratnavali Ka Sach" sheershak se likhi thi. Bad me sochata raha ki yah kaisa vichitra sanyog hai ki Rishabh ne bhi Ratnavali ki peeda ko vani dee aur maine bhi usi ko kendra me rakh kar "Patni" aur "Nari" ke beech ke dwadwa ko lekar apni bhavana vyakt ki thee.
Tum par garv karta hoon main. Computer jyada ata nahi,isiliye jaldi aur vistar se tumhe likh nahi pata. Umr ke 70ven varsh me pravesh kar chuka hoon aur Roorkee jaise chhote se nagar me rah kar Sarasvati ki sadhana me rat raha hoon. Jo Ma Sharda ne diya,use apna param saubhagya manta hoon.
Saparivar sukhi raho,yahi meri mangal kamna hai.
Tumhara, Dr. "Arun"

As a poem it is, INDEED, very very good. However, on the subject let us have some discussions, sometime - and no offence meant please.
Regards - Gurudayal Agarwala

आदरणीय शर्मा जी ,
आपके द्वारा लिखी गयी नारी वादी कवितायेँ देखने के बाद मेरी इच्छा हुयी कि एक अनुवाद आपको भेजूं. अच्छी लगे तो अपने ब्लॉग में दीजियेगा.
धन्यवाद
अभिवादनों के साथ
आर. शांता सुंदरी

कौन है तू
--------------

मै एक वरूधिनी हूँ !
भयभीत हरिनेक्षना हूँ
प्रेम करने के दंड के बदले में
धोखा दी गयी वेश्या हूँ
हिमपर्वतों को साक्षी मानकर कहती हूँ
प्यार के बदले में
वीदाना ही मिली आँखों से नींद उड़ जाने की.
प्यार करने वाली स्त्रियों को ठगने वाले
माया प्रवरों के वारिस ही हैं मनु!
+ + +

मै एक शकुन्तला हूँ!
एक पुरुष की अव्यक्त स्मृति हूँ
मुझे छोड़ सबकुछ याद रखने वाला वह
उसे छोड़ कुछ भी याद न करने वाली मै
दोनों के असीम सुख सागर का
मनो प्रकृति ही मौन साक्षी हो!

पति का प्यार नहीं सिर्फ निशानी पाने वाली मै!
+ + +

पांच पतियों की पत्नी द्रौपदी हूँ मै!
वरन कर अर्जुन का बात गयी पांच टुकड़ों में
पुरुष के मायाद्यूत में एक सिक्का मात्र हूँ !
भरी सभा में घोर अपमान
पत्नी के पड़ से वंचित करने वाला युधिष्ठिर!

बाते दाम्पत्य में बचा तो केवल
जीवन-नाटक का विषाद !
+ + +

मै ययाति की कन्या माधवी हूँ!
दुरहंकार से भरी पुरुषों की संपत्ति हूँ
संतान को जन्म देनेवाली
सर से पाँव तक सौन्दर्य की मूर्ती हूँ!
अनेक पुरुषों के साथ दाम्पत्य
मेरे लिए अपमान नहीं
वह तो मेरा क्षत्र धर्म है!
नित यौवन से भरी कन्या हूँ मै!
हतभाग्य!
स्त्री का मन न जानने वाले ये ...
ये क्या महाराज हैं? महर्षि हैं?
पुरुष हैं?
+ + +

दो आँखों पर सपनों के नीले साए
समय ने जो कहानियाँ बताईं
उन सबमे स्त्रियाँ व्यथित ही दिखीं!
यह पूरा स्त्रीपर्व ही दुखी स्मृतियों की परंपरा है !
+ + +

अब मै मानवी हूँ!
अव्यक्ता या परित्यक्ता नहीं हूँ
अयोनिजा या अहिल्या नहीं होऊँगी !
वंचिता शकुन्तला की वारिस कदाचित नहीं हूँ !
अब मै नहीं रहूँगी स्त्रीव का मापदंड बनकर
मै अपराजिता हूँ !
अदृश्य श्रृंखलाओं को तोड़ने वाली काली हूँ !
सस्य क्षेत्र ही नहीं युद्धक्षेत्र भी हूँ !

लज्जा से विदीर्ण धरती भी मै ही हूँ
उस विदीर्ण धरती को विशाल बाहुओं से ढकने वाला आकाश भी मै ही हूँ !
********************************************************************************
मूल तेलुगु कविता : रेंटाला कल्पना
अनुवाद : आर. शांता सुंदरी

Priy Dr. Rishabh, Sasneh.
Tumhari ek kavita ne jane kaisa jadu kiya ki maine tumhe varshon purani apni ek kavita bhej dee,jis par Pratibha Saxena kee ek kavita tumne mujhe bheji. Sach yah hai ki isi prakar ki preranaon se kavita nirantar badhi aor saji-sanvari hai.
Main lagatar ghareloo aur sahityik karyon me vyast rahata hoon,isliye nirantar computer par nahi baith pata. Vastavikta yah hai ki main computer bas kam-chalau hi janta hoon.
Tumhari mail ati hai to sfoorti see mahsoos karta hoon.
Vidushi Vidyottama ko kendra me rakha kar aath sargon ka ek Nari Gaurav Gatha kavya racha hai jo prakashit bhi huva hai aur Moun Teerth Foundation,Ujjain se Vidushi Vidyottama Samman se vibhooshit bhi huva hai.
Pichhalee bar tum Khatauli aye,lekin mujhse mulakat nahi ho saki,ab kab ana hai?
Tumhara,Dr. Arun

कोई टिप्पणी नहीं: