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बुधवार, 25 मई 2011

फ़ैज़-केदार जन्मशती अंतरराष्ट्रीय समारोह संपन्न


भिलाई ।[ 'सृजनगाथा' संपादक के सौजन्य से]. 

फ़ैज़ के मयार तक कौन पहुँच सकता है – डॉ.मुनीज़ा हाश्मी

 "मेरा बचपन बहुत तनहा बीता। मैं लगभग पाँच वर्ष की बच्ची थी जब अब्बू की गिरफ़्तारी हुई थी। मेरे ज़ेहन में वह मंजर आज भी ताज़ा है, मामा (माँ) के गुस्से का इज़हार, उनकी सिसकियाँ और अब्बू का उनको समझाना, मैं और मेरी बड़ी बहन सलीमा कमरे के एक कोने दुबकी हुईं,कारों के जाने की आवाज़ ये सब कहते हुये उनका गला रुँध आया। मेरे अब्बाजान यानी फ़ैज़ साहब पंजाबी थे और माँ अँग्रेज़। इस नाते अँग्रेजी मेरी मातृभाषा हुई और पंजाबी पितृभाषा। उर्दू कुछ मैंने सीखी है। पापा से हमेशा एक भीनी ख़ुशबू आती थी और मैंने कभी भी उन्हें बेतरतीब नहीं देखा। वे एक सलीक़ेमंद शायर थे। मैं शायरी नहीं करती क्योंकि फ़ैज़ के मयार तक भला कौन पहुँच सकता है।" फ़ैज़ साहब की सुपुत्री डॉ. मुनीज़ा हाश्मी (लाहौर-पाकिस्तान) ने अपना वक्तव्य देते हुए अपने बचपन की यादों से सभागार को द्रवित कर दिया। उन्होंने प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा 14-15 मई को इस्पात नगरी भिलाई में आयोजित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय समारोह के उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए उन्होंने सभी हाज़रीन को लाहौर के फ़ैज-घर आने की दावत भी दी तथा संस्थान का शुक्रिया अदा किया। इसके पूर्व उन्होंने आयोजन का शुभारम्भ देश-विदेश के सैकड़ों वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में मंगलदीप प्रज्ज्वलित कर एवं फ़ैज़ साहब के चित्र पर माल्यार्पण कर विधिवत उद्घाटन किया।

फ़ैज़ प्रगतिशील आंदोलन की प्रेरणा में रहेगें – खगेंद्र ठाकु
भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के आधारस्तम्भ एवं प्रख्यात आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर (पटना) ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि दिल्ली में सम्पन्न प्रेमचंद इंटरनेशनल सेमीनार में उन्होंने पहली बार फ़ैज़ के दीदार किये और उनकी नज़्म सुनी। उन्होंने कहा कि कविता के इतिहास में शायर-कवियों का क़द कम होता गया है। प्रगतिशील आन्दोलन में हमने हमने हमेशा फ़ैज, केदार और नागार्जुन आदि को अपनी सोच और प्रेरणा के केन्द्र में रखा है। पूर्वज शायर-कवियों ने जो वैचारिक लड़ाइयाँ लड़ी हैं, उस दाय को, विरासत को हम सम्हाल नहीं पा रहे हैं इसलिये भी महत्वपूर्ण रचनायें और बड़े रचनाकार सामने नहीं आ पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह तो माया और ममता का समय है - इसमें ऐसे आयोजन भी संभव हैं और हो रहे हैं - यह मेरे लिये संतोष और आशा का आसमान खोलते हैं।

महत्वपूर्ण साहित्यकारों को अँधेरे से निकालना होगा - विश्वरंजन
प्रमोद वर्मा संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन ने स्पष्ट किया कि मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, श्रीकांत वर्मा और प्रमोद वर्मा ऐसे साहित्य-साधक हुये हैं जिनसे आज भी लेखक अपनी धार लेते हैं। ऐतिहासिकता में प्रमोदजी के अनदेखे किये जाने की स्थिति में यह संस्थान एक नैतिक लेखकीय दायित्व के तहत अस्तित्व में आया। इससे हम यह संदेश भी देना चाहते हैं कि ऐसे बहुतेरे महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं जिन्हें व्यवस्थित रूप से अँधेरे में ही रखने के कुचक्र सक्रिय हैं। अतः प्रमोद वर्मा संस्थान इस प्रवृत्ति, प्रकृति और निष्क्रियता से उपजे शून्य को भरने का एक विनम्र प्रयास है। अधिकाधिक लेखकों को प्रकाशित करना इसकी एक कड़ी है।

मेरी आश्नाई की शुरुआत फ़ैज़ से – डॉ. धनंजय वर्मा
प्रखर समालोचक डॉ. धनंजय वर्मा ने विस्तार से फ़ैज़ की शायरी और उनके द्वन्द्व पर प्रकाश डालते हुये कहा कि उर्दू शायरी से मेरी आश्नाई की शुरूआत फ़ैज़ की शायरी से ही हुई थी।

साहित्य मानवीय संस्कृति का विकास करे- डॉ. अजय तिवारी 
आलोचक डॉ. अजय तिवारी ने कहा कि साहित्य को इतिहास से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। वैयक्तिक प्रतिभा के साथ इतिहास का चक्र ही ऐसे नामचीन लेखकों को जन्म देता है। क्या कारण है कि 1910-11 एक-दो नहीं 23 महत्वपूर्ण नामी-गि़रामी लेखकों जन्मशती का वर्ष है। ये तमाम लेखक स्वतंत्रता और क्रान्तिकारी आन्दोलनों की उपज हैं। हम भारत में केदार और फ़ैज़ की जन्म शताब्दी एक मंच पर एक साथ मना रहे हैं, यह भारत की सांस्कृतिक बुनियादी विशेषता है जो साहित्य में भाषा और सरहदों की सीमाओं दरकि़नार कर लोक-कल्याण को सर्वोपरि रखती है। साहित्य की यही भूमिका भी है कि वह मानवीय संस्कृति का विकास करे।

उद्घाटन अवसर पर प्रमोद वर्मा संस्थान के महासचिव व शायर मुमताज़ ने स्वागत वक्तव्य दिया। संस्थान के उपाध्यक्ष व श्री कवि रवि श्रीवास्तव ने उद्घाटन सत्र का संचालन किया। स्वागताध्यक्ष श्री अशोक सिंघई अतिथियों का पुष्पगुच्छ से हार्दिक स्वागत किया।

नयी कृतियों का विमोचन
इस अवसर पर विश्वरंजन के सम्पादन में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर प्रकाशित एकाग्र 'सच जि़न्दा है अब तक' एवं केदारनाथ अग्रवाल पर प्रकाशित एकाग्र 'बांदा का योगी' का लोकार्पण हुआ। इन महत्वपूर्ण संकलनों के साथ लाला जगदलपुरी की किताब 'गीत धन्वा', डॉ. दयाशंकर शुक्ल की पुनर्प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य का अध्ययन', शिवशंकर शुक्ल की 'डोकरी के कहिनी', रवि श्रीवास्तव की 'नदी थकने नहीं देती', सुनीता वर्मा की 'घर घुंदिया', शंभुलाल बसंत की 'इंक्यावन नन्हे गीत', विश्वरंजन/आर.के. विज़/जयप्रकाश मानस की 'इंटरनेट, अपराध और कानून' के साथ ही जयप्रकाश मानस की तीन अन्य कृतियों 'विहंग', 'जयप्रकाश मानस की बाल कवितायें' तथा छत्तीसगढ़ की लोककथाएँ रमेश गुप्त का कविता संकलन 'त्रिवेणी', आदि कृतियों के लोकार्पण विशिष्ट अतिथियों द्वारा सम्पन्न हुए।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर केंद्रित प्रथम सत्र 'क़ैद--क़फ़स से पहले' में बीज वक्तव्य दिया पाकिस्तान से पधारे अब्दूर रऊफ़ । इस सत्र में कुमार पंकज, डॉ. धनंजय वर्मा, अजय तिवारी सहित मुनीज़ा हाश्मी ने फ़ैज़ की शायरी पर व्यापक विमर्श किया । सत्र की अध्यक्षता की पाकिस्तान की वरिष्ठ आलोचक आरिफ़ा सैयदा । सत्र का सुव्यवस्थित संचालन किया युवा आलोचक पंकज पराशर ने । द्वितीय सत्र 'शामे-सहरे-यारां' की अध्यक्षता की आलोचक याकूब यावर ने । बीज वक्तव्य दिया मौसा बख़्श ने । इस अवसर, खगेंद्र ठाकुर, डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, मुनीजा हाश्मी, पंकज पराशर, फ़ज़ल इमाम मल्लिक और डॉ. रोहिताश्व आदि वक्ताओं ने अपनी बात रखी ।

दो प्रतिष्ठित कवियों का सम्मान
रात्रि कालीन आयोजन में समग्र व विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिये उर्दू के नामचीन वरिष्ठ शायर ज़नाब बदरुल क़ुरैशी बद्र, दुर्ग एवं भिलाई के वरिष्ठ कवि श्री हरीश वाढेर को प्रमोद वर्मा सम्मान से सम्मानित किया गया । उन्हें संस्थान की ओर से शॉल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और संस्थान द्वारा प्रकाशित कृतियाँ आदि प्रदान कर अंलकृत किया गया ।

अन्तरराष्ट्रीय मुशायरा 'महफ़िल--सुख़न' सम्पन्न
 
प्रगतिशील शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जन्मशती समारोह के अंतिम और रात्रिकालीन सत्र में देश-विदेश के ख्यातिलब्ध शायरों ने अपनी शायरी से फ़ैज़ साहब को याद किया और गंगा-जमुनी संस्कृति को और भी पुख़्ता करते हुये उर्दू और हिन्दी ज़ुबानों की मिलनसारिता सिद्ध की। इस अन्तरराष्ट्रीय मुशायरे की सदारत (अध्यक्षता) पाकिस्तान की मशहूर शायरा डॉ. आरिफ़ा सैयदा साहिबा ने की। लाहौर से भिलाई पधारीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की साहबज़ादी डॉ. मुनीज़ा हाश्मी मुख्य अतिथि थीं। मौक़े पर पाकिस्तान के जिओ टीव्ही. के डायरेक्टर अब्दूर रऊफ़ साहब एवं दुर्ग के महापौर डॉ. एस.के. तमेर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे।

अध्यक्षीय आसंदी से मुबारक़बाद देते हुये डॉ. आरिफ़ा सैयदा साहिबा ने कहा कि उर्दू और हिंदी भाषायें, पाकिस्तानियों और हिन्दुस्तानियों की तरह मिलनसार हैं। यह हमारी सांस्कृतिक एकरूपता का बुनियादी और ठोस बयान है। उन्होंने फ़ैज़ साहब की रचनाओं का प्रभावी पाठ भी किया। संस्थान के निदेशक श्री जयप्रकाश मानस ने तरन्नुम में फ़ैज़ साहब की ग़ज़लों का पाठ कर महफ़िल को भाव-विभोर कर दिया। देर रात तक चले मुशायरे में बनारस विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख डॉ. याक़ूब यावर, दिल्ली के युवा कवि व पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक के साथ स्थानीय तथा जाने-माने शायरों में फ़ैज़ सम्मान से सम्मानित बदरूल क़ुरैशी बद्र, अशोक शर्मा, मुकुन्द कौशल, नजीम कानपुरी, क़ाविश रायपुरी, डॉ. संजय दानी, साकेत रंजन प्रवीर, डॉ. नौशाद सिद्दीकी, रामबरन कोरी 'क़शिश', मोहतरमा नीता काम्बोज़ और निज़ामत कर रहे शायर मुमताज़ ने अपनी नायाब रचनायें पेश कीं।

'जहाँ गिरा मैं, कविताओं ने मुझे उठाया'

द्वितीय दिवस 15 मई, 2011 प्रगतिशील धारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती समारोह के अन्तर्गत  देश के ख्यातिलब्ध कवियों ने कविताओं की धार से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। भिलाई निवास में देर रात तक सम्पन्न 'जहाँ गिरा मैं, कविताओं ने मुझे उठाया' राष्ट्रीय काव्य गोष्ठी में देश के नामचीन कवियों ने बेहतरीन कविताओं से केदारजी को शब्दांजलि दी। इस अति महत्वपूर्ण काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ. धनंजय वर्मा (भोपाल), डॉ. खगेन्द्र ठाकुर (पटना), डॉ. अजय तिवारी (नई दिल्ली), डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल (नई दिल्ली) एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष व कवि श्री विश्वरंजन, पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ ने की।

सर्वप्रथम संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन ने श्रीमती सुनीता अग्रवाल (केदारजी की पौत्री) का शॉल, श्रीफल व स्मृतिचिन्ह एवं संस्थान की कृतियाँ भेंट कर सम्मान किया।

पहले चरण में केदारजी की कविताओं का पाठ उनकी पौत्री श्रीमती सुनीता अग्रवाल, संस्थान के निदेशक श्री जयप्रकाश मानस व मुमताज ने किया। अध्यक्षीय आसंदी से डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने आयोजन की सफलता पर बधाई देते हुये कहा कि केदारजी की कविताओं के बरअक्स उनकी शान में आज पढ़ी गई कविताओं में आज के समय की अनुगूँज है.  इस गोष्ठी की विशेषता यह रही कि अध्यक्ष मंडल से डॉ. खगेन्द्र ठाकुर एवं श्री विश्वरंजन ने भी काव्यपाठ किया। इनके साथ प्रमोद वर्मा सम्मान से सम्मानित हरीश वाढेर (भिलाई), फ़ज़ल इमाम मलिक (दिल्ली), माताचरण मिश्र (भोपाल), डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे (लातूर), प्रो. रोहिताश्व (गोवा), भारत भारद्वाज (नई दिल्ली), नंद भारद्वाज (जयपुर), श्री श्रीप्रकाश मिश्र (इलाहाबाद), डॉ., प्रताप राव कदम (खण्डवा), रमेश खत्री (जोधपुर), संतोष श्रीवास्तव (मुम्बई), जया केतकी (भोपाल), इला मुखोपाध्याय (भिलाई), संतोष झाँझी (भिलाई), श्री रवि श्रीवास्तव (भिलाई) एवं संचालक अशोक सिंघई ने अपनी उत्कृष्ट रचनायें प्रस्तुत कीं। संस्थान के उपाध्यक्ष व कवि अशोक सिंघई ने गोष्ठी का संचालन किया। आभार व्यक्त किया संस्थान के वरिष्ठ उपाध्यक्ष व लेखक डॉ. सुशील त्रिवेदी ने ।

बिंबों की गतिशीलता में केदार अकेले कवि हैं – अजय तिवारी
दूसरे दिन 15 मई को केदार नाथ अग्रवाल जन्मशती समारोह के अंतर्गत केदार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अभिकेंद्रित सत्र 'तेज़ धार का कर्मठ पानी' के सत्राध्यक्ष और प्रसिद्ध आलोचक अजय तिवारी ने कहा कि केदार नाथ अग्रवाल मार्क्सवादी सौंदर्य चेतना के विरल कवि हैं । जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्य दृष्टि से चीज़ों को देखा है । नदी, पहाड़, केन के सौंदर्य को संश्लिष्टता प्रदान की है । केदार के बिंब स्थायी नहीं गतिशील बिंब हैं। बिंबों की गतिशीलता को लेकर प्रगतिशील हिंदी कविता के केदार अकेले कवि हैं ।

सीधे और सहज रास्ते के कवि है केदार – भारत भारद्वाज
भारत भारद्वाज ने केदार अग्रवाल पर बोलते हुए ने कहा कि अग्रवाल मार्क्सवादी चेतना के सीधे और सहज रास्ते के कवि हैं । अभिव्यक्ति की जटिलता का केदार की कविता में स्थान नहीं है । अभिव्यक्ति की जटिलता को लेकर ही केदारनाथ. ने मुक्तिबोध की कविता की कहीं-कहीं आलोचना भी की है । उन्होंने यह भी कहा कि इसे रामविलास शर्मा की दृष्टि से न देखकर केदार की कविता की दृष्टि स देखा जाना चाहिए ।

केदार सामाजिकता और समष्टि के कवि हैं – कृष्णदत्त पालीवाल
प्रख्यात आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल ने कहा कि अग्रवाल और अज्ञेय भिन्न विचारधारा के होते हुए भी दोनों के संबंध मित्रवत थे । केदारजी ने अपनी कविताएँ तार सप्तक में नहीं दी हैं । इसके कारण इतर हो सकते हैं । केदारजी और मुक्तिबोध की मित्रता उनके पत्रों से साबित होती है । जो मेरे पास धरोहर के रूप मे हैं । के. . सामाजिक समष्टि के कवि हैं । और अज्ञेय व्यक्तिवादी कवि होते हुए भी हिन्दी को जो कुछ उन्होंने दिया वह कम मह्तवपूर्ण नहीं है ।

इस अवसर बोलते हुए केदार जी के नाती चेतन अग्रवाल ने कहा कि मेरे नाना केदार जी बहुत ही सरल सहज और व्यक्तित्व के स्वामी थे । उन्होंने कभी भी जीवन में अपने कार्य व्वयहार में छल-छद्म को स्थान नहीं दिया। उन्होंने जो कुछ भी लिखा और जिया वो बहुत ही ईमानदारीपूर्ण था । इस अवसर पर केदार जी की पोती सुनीता अग्रवाल जी ने भी अपने संस्मरण सुनाये ।

इसके अलावा 'बांदा का योगी' वाले सत्र में अध्यक्ष मंडल के डॉ. धनंजय वर्मा, खगेन्द्र ठाकुर, डॉ. अजय तिवारी के अलावा डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. श्याम सुंदर दुबे, श्री नंद भारद्वाज, डॉ. प्रताव राव कदम, डॉ. प्रकाश त्रिपाठी, श्री नरेंद्र पुंडरीक, श्री भारत भारद्वाज, कुमार वरूण आदि ने केदार के व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला । सत्रों का संचालन श्रीप्रकाश मिश्र और नरेंद्र पुंडरीक ने किया । इस दो दिवसीय आयोजन में केदारनाथ अग्रवाल की पौत्री श्रीमती सुनीता अग्रवाल (दिल्ली) शिरक़त करने विशेष तौर पर उपस्थित थीं।

इस अवसर पर डॉ. सुशील त्रिवेदी, रमेश नैयर, डॉ. प्रेम दुबे, श्री आरिफ़ हुसैन, डॉ. गंगाप्रसाद बरसैया, तेजेन्दर, सतीश जायसवाल, गिरीश पंकज, डॉ. चितरंजन कर, डॉ. तीर्थेश्वर सिंह,संतोष झांझी, मुंकुंद कौशल, अजहर कुरैशी, सुनीता वर्मा, निर्मल आनंद, कमल बहिदार, सुजीत आर. कर, मीना महोबिया, डॉ. मांघीलाल यादव, गुलबीर भाटिया, अशोक शर्मा, रौनक जमाल, यश ओबेराय, गिरीश पंकज, डॉ. चितरंजन कर, डॉ. तीर्थेश्वर सिंह, श्री दानेश्वर शर्मा, विनोद मिश्र, सरोज प्रकाश, डॉ. पी.सी.लाल यादव, त्र्यम्बक राव साटकर, शंकर सक्सेना, लोकनाथ साहू, डॉ. राधेश्याम सिंदुरिया, बल्देव कौशिक, आर. सी. मुदलियार, सरला शर्मा, डॉ. सुधीर शर्मा, राघवेंद्र सिंह, रविशंकर शुक्ल, सहित महावीर अग्रवाल, डॉ. चित्तरंजन कर, सुशील अग्रवाल, दानेश्वर शर्मा, के.पी.सक्सेना, वीरेंद्र पटनायक, हर्षवर्धन पटनायक, रमेश पांडेय, अभय तिवारी, वर्षा रावल, गायत्री आचार्य, रानू नाग, डॉ. निरूपमा शर्मा, शीला शर्मा, प्रभुनाथ सिंह, जयशंकर प्रसाद डडसेना, दिनेश माली, शाद बिलासपुरी, शेख़ निज़ाम राही कंदर्प कर्ष, वीरेंद्र बहादुर सिंह, योगेश अग्रवाल, अजय कुमार शुक्ल, अंजनी अंकुर, हर प्रसाद निडर, मंगत रवीन्द्र, प्रतिमा श्रीवास्तव, दिलीप पाटिल, शिवमंगल सिंह, महंत कुमार शर्मा, संजीव तिवारी, सईद खान, यश प्रकाशन के शांति स्वरूप शर्मा और शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा, यश ताम्रकार, पंकज ताम्रकार, सहित कई राज्यों के साहित्यकार भारी संख्या में समुपस्थित थे

भोपाल से जया केतकी की रपट

रविवार, 22 मई 2011

डॉ.शिखामणि की "घुंघरू वाली छड़ी"

 भूमिका 
डॉ.शिखामणि समकालीन तेलुगु कविता के एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं. ''घुंघरू वाली छड़ी''  में उनकी 51 प्रतिनिधि कविताओं का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है. ये कविताएँ अपनी भाव संपदा, वैचारिकता, कल्पनाप्रवणता और भाषाभंगिमा में बड़ी सीमा तक विशिष्ट हैं. यह विशिष्टता संभव हुई है सामान्य लोकानुभवों की प्रभावी अभिव्यक्ति के सहारे. 

इन कविताओं को पढ़ते हुए आपको लगेगा कि शिखामणि अमूर्त जगत में विहार करने वाली कविता नहीं रचते, बल्कि मूर्त जगत की वास्तविकताओं को और दैनिक जीवन की घटनाओं को भाषा की पोशाक पहनाकर कविता के व्यक्तित्व का सृजन करते हैं. शिखामणि के इस कवि व्यक्तित्व के निर्माण में कथात्मकता का बड़ा योगदान है. इसीलिए उनकी कविताएँ किसी किस्से की तरह आपसे बतियाने लग सकती हैं. कविता में किस्सागोई की यह कला उसे तनाव और विस्तार  एक साथ प्रदान करती है. ख़ास तौर से तनाव को साधने के लिए कवि ने कई स्थलों पर मनोरम फैन्टेसी रची है तो दूसरे कई स्थलों पर मिथकीय प्रसंगों का सहारा लिया है. मिथ और फैन्टेसी से बुनी हुई कविताएँ जादुई यथार्थ का  भी बोध कराती हैं - लेकिन शब्दों की इस जादूगरी का उपयोग शिखामणि किसी स्वप्नलोक की रचना के लिए नहीं करते बल्कि उसके माध्यम से भी समकालीन सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों की कठोर सच्चाइयों का ही बोध कराते हैं.

`घुँघरू वाली छड़ी  ' की कविताओं को पढ़कर आप इन्वाल्व हुए बिना नहीं रह सकते. कवि कथन में एक ऐसी अनिवार शक्ति है जो आपको अपने साथ बाँध ले जाएगी. इन कविताओं में दुःख-संताप झेलते हुए वंचितों-पीड़ितों-दलितों की वेदना करुणा का आधार बनती है तो असंतोष और आक्रोश को भी जगाती है. मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदभाव बरतने वाली हर व्यवस्था को कवि शिखामणि नकारने का साहस रखते हैं; और इसीलिए उनके स्वर में अनेक अवसरों पर व्यंग्य की धवनि सुनी जा सकती है.उन्होंने समाज के हर प्रकार के दोगलेपन पर से पर्दा उठाया है - चाहे वह स्त्री संबंधी कथनी-करनी का भेद हो या स्वतंत्र तेलंगाना राज्य की मांग से जुडा दोहरा आचरण. वे यहीं नहीं रुकते बल्कि सामाजिक न्याय को संभव कर दिखाने वाली क्रांति के लिए भी आह्वान करते हैं. ऐसा लगता है कि उनका कविधर्म उन्हें लगातार कचोटता है हर प्रकार की शोषक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए. और वे ऊर्ध्वबाहू होकर कविता की युगीन भूमिका की घोषणा करते हैं - "अब अक्षर जन्म लेंगे/ शिव के हाथ की डमरू-ध्वनि से नहीं/ वीरबाहू के चरमराते चप्पलों से ही./ अब वर्णमाला/ सवर्ण के हाथ की रुद्राक्ष-माला नहीं/ दलित मुहल्ले के आगे की अलगनी पर/ सूखते माँस-मछली हैं/ अब मनु के शरीर का जनेऊ/ मेरी इस काली जाति  के चप्पलों का कशीदा है."[चरमराते चप्पलों की भाषा].  

शिखामणि के कवि व्यक्तित्व में सकारात्मकता की सर्वत्र उपस्थिति उन्हें उन अनेक रचनाकारों से अलग कर देती है जो उत्तरआधुनिकता की झोंक में सर्वनकारवाद के ध्वजवाहक बने हुए हैं. इस सकारात्मक दृष्टिकोण का ही यह परिणाम है कि शिखामणि की कविता को स्त्री या दलित या अल्पसंख्यक जैसे हाशियाकृत किसी विमर्श की हदबंदी  स्वीकार नहीं है. वे न तो मनुष्य को तोड़कर देखने के पक्ष में हैं न ही कविता को. संपूर्ण मनुष्य के बिना संपूर्ण कविता भला कैसे संभव है! मनुष्यता की पीड़ा उनकी कविता की पीड़ा है और मनुष्यता का सौंदर्य ही कविता का सौदर्य - ''मुँह अँधेरे ही गलियों में / फूल की टोकरी सहित/ घूमते समय वह/ कार्तिक मास  के सरोवर में/ छोड़े केले के दोने में/ जलती ढिबरी सा लगता है.''[फूल वाला बालक]. 

कवि शिखामणि की संवेदना का संसार जितना व्यापक है उनकी लोकासक्ति भी उतनी ही सघन है. यही कारण है कि वे केवल परिवार और समाज के साथ ही रिश्ते नहीं बनाते, संपूर्ण जड़-जंगम जगत के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं. मनुष्य और प्रकृति के बीच बिंब-प्रतिबिंब भाव इसी की निष्पत्ति है तथा इसी से लोक के ऐसे जीवंत चित्र संभव हो सके हैं जो आज दुर्लभ होते जा रहे  हैं. नवनिर्मित नारियल से बनी चटाई पर निर्वस्त्र सोने का सुख, कटे  घाव पर कुनकुना पानी डालने की सी राहत, द्वार खटखटाने के समान चोंच मारता हुआ कठफ़ोडुआ,   छाल की आँखें फाड देखने लगता वृक्ष, पल्लवित होता हुआ काठ का पैर, कहीं किसी अज्ञात वन में कोयल के कूकने पर पल्लवित होते द्वार एवं खिडकियाँ, किसी सागर की किसी लहर को किसी किरण के चूमने पर मुस्कुराता हुआ घड़े का नमक, मातृहीन बालक की पुकार पर माँ की समाधि पर पल्लवित होता हुआ तुलसी का बिरवा, कान्हा की बाँसुरी बनने के लिए समस्त वनराजि  की बाँस  में बदल जाने  की आतुरता, कूकने को तैयार पक्षी की कूक का कंठ में ही छटपटाकर रह जाना, बातों का भाले में बदलना, शरीर का धनुष में ढलना, खून की बूँद गिरने से ज्वालामुखी का फट पड़ना, जंगल में पक्षियों की आवाज में अपना गला मिलाकर पागलों की तरह पुकारती हुई माँ, मृगछाल ओढ़े शेर और हंस के पंखों को चिपकाए गिद्ध का मंद स्वर में शान्ति पाठ करना, आधी रात जंगल में बंदूकों का चुपचाप चल पड़ना, स्त्रियों की आँखों में इस देश की सारी नदियों का बहना, कुलियों के उदर में जंगल की सारी आग का दहना, लाल चोंच वाले तोते का मारा जाना और जंगल का विकसित होना, डकार के रूप में कविता का प्रकट होना, पतिव्रताओं के वेश में वेश्याओं को देखना, वेश्या की भूमिका में गृहिणियों को देखना, उँगलियों के चिमटे से अंगारे सरकाना, वर्णचाप का ध्वंस करता हुआ दलित कवि - जैसी अनेक सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ कवि शिखामणि की इन कविताओं में बिखरी पडी हैं जो उनकी रचनाधर्मिता और प्रतिबद्धता का सही सही पता देती हैं. 

साथ ही अनेक सूक्तियाँ भी इन कविताओं में भरी पड़ी हैं जिन्हें कवि के अनुभव का नवनीत कहा जा सकता है. जैसे - कुछ सीढियाँ केवल उतरने के लिए होती हैं चढ़ने  के लिए नहीं. सरल नहीं है उठना. / जिसके भीतर अग्निकुंड हो, बाहरी आग उसका बाल बांका नहीं कर सकती. यहाँ इस संग्रह की शीर्ष कविता 'घुँघरू वाली छड़ी' का भी एक अंश द्रष्टव्य है - "एक अनाथ बालक की तरह/ भीड़-भाड़ वाले/ चौराहे पर मुझे छोड़ दीजिए/ मुझे आदर न करने वालों के अभाव में/ व्यथित नहीं हूँगा./ अंधे के हाथ की/ घुँघरू वाली छड़ी बनकर/ उसे रास्ते के पार करा दूँगा." 

डॉ.शिखामणि की इन तेलुगु कविताओं को हिंदी जगत के समक्ष प्रस्तुत करने का श्रेय वरिष्ठ अनुवादक डॉ.एम.रंगैया को जाता है. वे तेलुगु साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं तथा हिंदी लेखक, अनुवादक और अध्यापक के रूप में उन्होंने लंबा अनुभव अर्जित किया है. यह अनुवाद उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाएगा, इसमें संदेह नहीं. मैं समझता हूँ कि तेलुगु सहित सभी भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ समकालीन लेखन को अनुवाद के माध्यम से हिंदी में उपलब्ध कराना बेहद जरूरी और राष्ट्रीय महत्व का कार्य है. इस  कृति को भी इसी भावना के साथ ग्रहण किया जाना चाहिए. 

कवि डॉ.शिखामणि और अनुवादक डॉ.एम.रंगैया इस मर्मस्पर्शी कविता संग्रह के प्रकाशन के लिए अभिनंदनीय हैं. 

शुभकामनाओं सहित 

- ऋषभ देव शर्मा 
22 मई, 2011  

तेलुगु काव्य ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ की भूमिका


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‘अक्षर मेरा अस्तित्व की रचनाकार डॉ.सी.भवानी देवी प्रमुख समकालीन तेलुगु कवयित्री हैं। उन्होंने समय और समाज के प्रति जागरूक शब्दकर्मी के रूप में अपनी पहचान बनाई हैं। विषय वैविध्य से लेकर शिल्प वैचित्र्य तक पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें बड़ा रचनाकार बनाया है। 

मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है। भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है। इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है। माँ इसके लिए दोहरी संवेदनाओं का आधार है - जूझने के संस्कार का भी और आत्मसमर्पण करके पहचान खो देने के संस्कार का भी। इस द्वन्द्वात्मक संबंध में कवयित्री स्वतंत्र अस्तित्व के पक्ष को चुनती है - "पर माँ! / अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ / यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता /  इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ / तुम्हारी पीढ़ी हैरान रह जाए / इस अंदाज से / अपनी पीढ़ी में सिर उठा रही हूँ / अब आगे / अक्षर ही मेरा अस्तित्व होगा!" 

डॉ.भवानी देवी की स्त्री अतीत को एक पूजाघर मानती है जिसमें थोड़ी देर ठहरना तो ठीक है पर हमेशा के लिए बसना नहीं। यह स्त्री निरंतर उछलते जल प्रपात की तरह यात्रा में है - इस बोध के साथ कि ‘जीवन तो लहर नहीं / कि दोबारा पीछे की ओर बह जाए।’ इस स्त्री को यह भी बोध है कि अस्मिता की बात करने पर, अक्षर अस्तित्व की चर्चा करने पर पुरुष समाज उसके स्त्रीत्व तक को कटघरे में खड़ा कर देगा, लेकिन वह पिंजड़ों को गले लगाने के पागलपन को दुहराने के लिए तैयार नहीं है। घर गृहस्थी में जब घरवाली के हिस्से में सिर्फ टूटा फूटा प्यार और उपचार के नाम पर उपहास ही आता है तो वह इस बेगार से छुटकारे के लिए आवाज लगाती ही है - 
"तरंग बनूँ तट को पार करूँ...
पतंग बनूँ आकाश के  अंतिम छोर तक उडूँ...
हिम बनूँ जी भर बहने लगूँ...
पेड़ की जड़ बनूँ कोपलों को सीने से लगा लूँ...
प्रातः बनूँ आराम से बाग़ में घूमूँ फिरूँ...
मानवी बनूँ
प्यूपा को तोड़कर 
तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊँ...।"

इसके अलावा कवयित्री भूमंडलीकरण के नाम पर उभर रही एकजैसेपन से ग्रस्त संवेदनहीन ठंडी दुनिया को देखकर मनुष्‍यता के भविष्य के बारे में बेहद चिंतित हैं। घर हो या बाहर, आज का मनुष्य सर्वत्र एक ऊष्म आत्मीय स्पर्श के लिए तरस रहा है। संबंधशून्यता और असंपृक्ति की यह  बीमारी शहरों से चलकर अब गाँवों तक पहुँच गई है जिस पिशाच ने सारे शहरों को निगला है वह अब हमारे गाँवों पर भी टूट पड़ा है। अब खेतो में फसल नहीं नोटों की गड्डियाँ उगाई जाने लगी हैं। परिवार टूट रहे हैं; बाजार फैल रहे हैं। बाजार के इस दैत्य ने घर की बोली को चबा लिया है और पराई भाषा अपनों को पराया करके भारत को अमेरिका की ओर उन्मुख कर रही है। लेकिन इसी समय का सच यह भी है कि बाजार के साम्राज्य  के बरक्स छोटी छोटी स्थानीय संवेदनाएँ अंधेरे के विस्तार के समक्ष दिये की तरह सिर तानकर खड़ी हैं। वर्तमान समय में कविता की सबसे बड़ी प्रासंगिकता स्थानीयता की इस संवेदना को बनाए रखने में ही निहित है - "आज गाँव है / एक उजड़ा मंदिर / फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे / भले ही मंदिर उजड़ गया हो / वहाँ एक छोटा-दीया जलाने की इच्छा है।"

कवयित्री धरती पर फैलते रेगिस्तान और दिलों में फैलती अमानुषता के प्रति बेहद चिंतित हैं। वे जानती हैं कि सृजन के लिए कोमलता चाहिए होती है, द्रवणशीलता की दरकार होती है। शिशिर वन जैसे सूखे दिलों में आग के तूफान उठते रहेंगे तो भला हरियाली के अंकुर कहाँ से फूटेंगे? अगर यही हाल रहा तो ‘पिघलने वाले मनुष्य का नामोनिशान भी नहीं रहेगा!’ अगर ऐसा हुआ तो दुनिया को बेहतर बनाने के सपने अकारथ  हो जाएँगे: लेकिन मनुष्यविद्ध कविता के रहते यह संभव नहीं.   

डॉ.सी.भवानी देवी की काव्यभाषा अपनी बिंबधर्मिता और विशिष्‍ट सादृश्‍यविधान के कारण मुझे खास तौर पर आकर्षित करती है। आवाजों के बीच जमने वाले शून्य  की तरह हाथ मिलाने में, सारे दृश्‍य़ बर्फ के टुकड़ों की तरह टूटते गिरते रहते हैं, मन को घेरने वाली धुंध जैसे मौन को छोड़कर, मौन हजारों लाखों शब्दों को बर्फ की तरह घनीभूत कर देता है, एक एक पन्ने में से उठतीं चमेली के फूलों की ज्वालाएँ, युद्ध के बड़े बड़े दाँतों के बीच फँसकर कटनेवाले बचपन, रीढ़ की हड्डी बनता हुआ तकिया, नाभिनाल के कटते ही पगहे से बाँध दी गई लड़की, बिना साए का इंसान, दोनों हाथ ऊपर उठाकर बुलाती स्त्री, पीछे रस्सी से बँधे हाथों वाली स्त्री, पिंजरे में बँधी पंछी की तरह नरक भोगती स्त्री, मकबरे  को तोड़कर निकलने वाली पुकार जैसी तलवार से बुरके को सिर से पाँव तक काटती हुई स्त्री, चिकने पहाड़ पर चढ़ती, फिसलती और फिर फिर चढ़ती हुई स्त्री, चारों ओर समुद्र ही समुद्र होते हुए प्यास बुझाने को एक बूँद पानी के लिए तरसना, दोस्त के इंतजार में आँखें बिछाए बैठा घोंसला, मेरा बचपन किताबों में मोर पंख सा छिपा हुआ है, उस घर की ईंट ईंट पर मेरे नन्हे हाथों की छापें अब भी गीली दिखती हैं - ये सारे शब्दचित्र कवयित्री की गहन संवेदनशीलता और सटीक अभिव्यक्‍ति क्षमता के जीवंत साक्ष्य हैं।

चाहे सुनामी हो या तसलीमा नसरीन पर हमला, कुंभकोणम के स्कूल में अग्निकांड में बच्चों की मृत्यु हो या 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट की घटनाएँ - हर छोटी बड़ी चीज़  कवयित्री डॉ.सी.भवानी देवी के मन मस्तिष्क के तारों को झनझना देती है। धर्म, भाषा, जाति, राजनीति और न जाने कितनी तरह के आतंकवाद और युद्धों को झेलती हुई  मनुष्यता का आक्रोश भवानी देवी के शब्दों में ढल कर  श्‍लोकत्व प्राप्त करता है - 
"हे धर्म...
अब तुझे ख़त्म करके ही
हम जीवन पाएँगे!
तुझे सिंहासन पर चढ़ाते रहेंगे जब तक
तब तक 
मैं आँसुओं से भरी घटा ही बनी रहूँगी
तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूँगी!"

श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.सी.भवानी देवी की इन कविताओं को अत्यंत सहज और प्रवाहपूर्ण अनूदित पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ में संकलित यह अनुवाद हिंदी भाषा की प्रकृति और हिंदी कविता के मुहावरे में इस तरह ढला हुआ है कि अनुवाद जैसा लगता ही नहीं। वस्तुतः आर.शांता सुंदरी के पास स्रोत भाषा तेलुगु और लक्ष्य भाषा हिंदी दोनों ही के साहित्य और समाज का इतना आत्मीय अनुभव है कि अनुवाद उनके लिए अनुसृजन बन जाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने तेलुगु की एक प्रमुख कवयित्री की प्रतिनिधि रचनाओं से हिंदी जगत का परिचय कराकर सही अर्थों में भारतीय साहित्य की अवधारणा को समृद्ध किया है। 

हिंदी जगत में ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ को स्नेह और सम्मान मिलेगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्‍वास है।

- ऋषभदेव शर्मा
21 मई, 2011