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शुक्रवार, 31 मई 2013

हिंदी के नाम पर हो रहा तमाशा

नवम विश्व हिंदी सम्मलेन 
क्या हिंदी की तकनीकी जटिलता उसकी अलोकप्रियता का कारण है?

22 से 24 सितंबर को जोहानिसबर्ग [दक्षिण अफ्रीका] में हिंदीभाषियों के गौरव के प्रतीक के रूप में नौवां विश्व हिंदी सम्मलेन निर्धारित विधिविधान के साथ संपन्न हो गया. सम्मलेन पर लगातार नज़र रखने वालों का कहना है कि भले ही इस बहाने दक्षिण अफ्रीका की गांधी जी के आंदोलन की स्मृतियों से जुडी पावन धरती का दौरा कर आए तमाम राज्याश्रित बुद्धिजीवी और अधिकारीगण अनेक उपलब्धियां गिना रहे हों, भीतरी सच्चाई यह है कि 'गांधी की हिंदी'  के लिए पिछले कई अन्य विश्वस्तरीय मेलों की तरह यहाँ भी कुछ खास हो नहीं सका.

ऐसे में सारे प्रयास को तमाशा कहने की अतिवादिता से बचते हुए चलें तो भी कई बातें ध्यान खींचती हैं. एक बात तो पहले से चली आ रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए क्या रणनीति तय की गई है, यह साफ़ नहीं है. क्या हर तीन साल में नियमित रूप से सम्मलेन करने से हिंदी को घर-बाहर वह स्थान मिल जाएगा जिसके लिए ये सारे के सारे कथित अंतरराष्ट्रीय प्रपंच रचे जाते हैं?

दूसरी, और निश्चय ही अधिक महत्वपूर्ण, बात यह है कि हिंदी के पक्ष में तमाम तरह के संख्याबल और बाजार के दबाव के बावजूद कम्प्यूटर और इंटरनेट पर उसका प्रसार अपेक्षित गति से क्यों नहीं हो रहा है. यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि हिंदी, जैसा कि कहा जाता है, कम्प्यूटर-फ्रेंडली भाषा है और देवनागरी सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि, तो विद्वानों से लेकर दुकानों तक अभी तक हिंदी के व्यवहार को स्वीकृति क्यों नहीं मिल पा रही है? दरअसल विश्व हिंदी सम्मलेन का एक विचार सत्र ‘’सूचना प्रौद्योगिकी - देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य’’ इसी चिंता को संबोधित था. लेकिन अभी तक  नहीं पता कि इस सत्र में हिंदी और देवनागरी के तकनीकी प्रसार को सरल और क्षिप्र बनाने के लिए क्या योजनाएं सामने आईं. फोनेटिक के बहाने कहीं हम हिंदी को देवनागरी से मुक्त करने और रोमन लिपि को स्वीकारने की ओर तो प्रौद्योगिकी के हिंदी-प्रयोक्ता को नहीं धकेल रहे हैं? अगर ऐसा है तो कहना होगा कि संकेत खतरनाक हैं. 

हिंदी के लिए जिनके मन में तड़प है, उन्हें इस सम्मेलनोत्तर परिवेश में मथने वाले कुछ मुद्दे इंटरनेट पर अत्यंत सक्रिय कई मंचों पर अलग तरह से चर्चा का विषय बने. उदाहरण के लिए ‘हिंदी भारत’ और ‘हिंदी शिक्षक बंधु’ जैसे चर्चा-समूहों पर हरिराम ने एक प्रश्नावली जारी करके नवम विश्व हिंदी सम्मलेन के अंग बने विद्वानों से 10 ‘तथ्यपरक व चुनौतीपूर्ण प्रश्न’ किए. उन्होंने अत्यंत बलपूर्वक सबसे पहले तो यह कहा  कि ‘’हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए कई वर्षों से आवाज़ उठती आ रही है. कहा जाता है कि इसमें कई सौ करोड का खर्चा आएगा. बिजली व पानी की तरह भाषा/ राष्ट्रभाषा/ राजभाषा भी इन्फ्रास्ट्रक्चर [आनुषंगिक सुविधा] होती है; अतः चाहे जितना भी खर्च हो, भारत सरकार को इसकी व्यवस्था के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए.’’ सहज जिज्ञासा है कि सम्मलेन ने इस दिशा में क्या कार्य-योजना बनाई. केवल पुराने प्रस्ताव पर नई मुहर लगाना इसके लिए काफी नहीं माना जा सकता. हिंदी जगत को नियमित रूप से बताया जाना चाहिए कि इस दिशा में क्या-क्या किया जा रहा है और क्या किया जाना है.

प्रश्नावली में यह अत्यंत महत्वपूर्ण और ठोस सवाल उठाया गया है कि तकनीकी रूप से जटिल मानी गई हिंदी को कम्प्यूटर-सहज बनाने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं. भावुकता से बचते हुए इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि कम्प्यूटरीकरण के बाद से हिंदी का ‘’आम प्रयोग’’ काफी कम होता जा रहा है. डाकघरों से लेकर रेलवे बुकिंग के चार्ट तक यह प्रमाणित करते हैं कि या तो अंग्रेज़ी लिखी जा रही है या गलत-सलत लिप्यन्तरण हो रहा है. छोटे से छोटे दूकानदार भी अब अंग्रेज़ी में लिखी कम्प्यूटर-पर्ची दे रहे हैं जबकि पहले वे हिंदी/ देवनागरी हाथ से लिखते थे. अतः यह पूछना सही है कि डाकघर जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में मूलतः हिंदी में कम्प्यूटर में डेटा-प्रविष्टि के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं और रेलवे आरक्षण आदि के अवसर पर मूलतः हिंदी में डेटा-प्रविष्टि और प्रोग्रामन के लिए क्या व्यवस्था की जा रही है. इसके अलावा मोबाइल में हिंदी का विकल्प होना भर काफी नहीं; बल्कि हिंदी-संदेशों को सस्ता बनाने के उपाय किए जाने अपेक्षित हैं क्योंकि फिलहाल हिंदी का संदेश अंग्रेज़ी से तिगुना महँगा पड़ता है.

हिदी के नए प्रयोक्ता आकर्षित करने के लिए उसके प्रयोग को आसान बनाना बेहद ज़रूरी है. प्रयोक्ता को परेशान  करने वाली एक समस्या यह भी है कि हिंदी शब्दकोष के लिए विभिन्न डेटाबेस देवनागरी के अलग-अलग सॉर्टिंग-ऑर्डर का प्रयोग कर रहे हैं. सवाल है कि हिंदी/देवनागरी को अकारादि क्रम से यूनीकोड में मानकीकृत करने तथा सभी के उपयोग के लिए उपलब्ध कराने हेतु क्या कदम उठाए जा रहे हैं. यहीं यह भी कि ऑनलाइन फ़ार्म आदि हिंदी में प्रस्तुत करने के लिए डेटाबेस उपलब्ध कराने की दिशा में क्या किया जा रहा है. साथ ही, ‘’अभी तक हिंदी की मानक वर्तनी के अनुसार यूनीकोड आधारित कोई वर्तनी संशोधक प्रोग्राम आम जनता के उपयोग के लिए निःशुल्क उपलब्ध नहीं है.’’ यह भी चौकाने वाला तथ्य है कि इनबिल्ट हिंदी-समर्थन के बावजूद कम्प्यूटर के अधिकांश उपयोक्ता इससे अनभिज्ञ हैं. इसलिए ज़रूरी है कि आम जनता को इस संबंध में अवगत कराया जाए और स्कूल स्तर से ही कम्प्यूटर पर हिंदी के अनुप्रयोग को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए. पूछा जा सकता है कि नवम विश्व हिंदी सम्मलेन ने इन चिंताओं को दूर करने के लिए क्या-क्या फैसले लिए हैं. 

बेशक इन सारे सवालों के जवाब में ठीकरा किसी के भी सिर पर फोड़ा जा सकता है. मसलन कहा जा सकता है कि हम हिंदी वालों की अपनी भाषा के प्रति श्रद्धा बेहद छूँछी है; या यह कि हमारे राजनैतिक नेतृत्व के पास संकल्पशक्ति और ईमानदारी का अभाव है; या कि हमारे बुद्धिजीवी दोगले आचरण के शिकार हैं; मगर विचारणीय समस्या यह है कि कहीं हिंदी की लोकप्रियता और वैश्विक स्वीकार्यता के मार्ग में उसकी तकनीकी जटिलता ही तो रोडे नहीं अटका रही है. 

नवम विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजन से लेकर इसके फलितार्थ तक पर चल रही बहस का समाहार करते हुए डॉ. कविता वाचक्नवी ने विभिन्न इंटरनेट-मंचों के अलावा अपने ब्लॉग ‘’वागर्थ’’ पर पर्याप्त संतुलित और निष्पक्ष विचार व्यक्त किए. वे कहती है कि ‘’विश्वहिंदी सम्मेलन पर युद्ध करने और ताल ठोंकने वालों के लिए आवश्यक है कि वे इसका अर्थ समझें कि इसका अर्थ हिंदी का एक बड़ा अंतर-राष्ट्रीय सम्मेलन नहीं है, अपितु विश्वहिंदी अर्थात् हिंदी के  वैश्विक स्वरूप और स्थिति से संबन्धित एक सम्मेलन है। जिस दिन यह बात लोग आत्मसात कर लेंगे उस दिन सम्मेलन पर और हिंदी पर बड़ा उपकार करेंगे, वरना इस सम्मेलन के लिए मचने वाली बंदरबाँट यों ही चलती रहेगी और जिन्हें प्रसाद नहीं मिलेगा वे वंचित रहने की पीड़ा के चलते हाय-तौबा मचाते रहेंगे। इन सब के बीच जो वास्तविक लोग हैं, उनकी यथावत् न पूछ होगी, न आवाज बचेगी और जाने किस दिन कौन सच्चा सिपाही थक-हार कर कूच कर जाएगा....पर तमाशा यों ही चलता रहेगा। यों राजनीति और हायधर्म, दौड़धर्म और जुगाड़धर्म आदि सारे धर्मों का अस्तित्व विदेशों में बसे हिंदीभाषी हिंदी  वालों में भी भारत की बराबरी का ही है। इसलिए मैं हिंदी को लेकर कोई बड़ा स्वप्न फिलहाल नहीं देखती। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के बाद हमारे इन सब धर्मों को नाम का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ही मिलना बचा है, वस्तुतः ये वैश्विक तो पहले से हैं ही।‘’ 

कुछ स्वनामधन्य हिंदी प्रेमियों ने तो विश्व हिंदी सम्मेलनों को बंद किए जाने तक की माँग कर डाली है. उन्हें लक्ष्य करके कविता वाचकनवी का यह कहना दूरदर्शितापूर्ण लगता है कि सम्मेलन को बंद किया जाना भी कोई समझदारीपूर्ण समाधान नहीं है। तब तो हिंदी के लिए सरकार के नाममात्र के दायित्व की भी इतिश्री हो जाएगी। वस्तुतः चीजों को पारदर्शी बनाना, गुणवत्ता को तय करना, ठोस कार्यरूप देना आदि के लिए कड़ाई से कुछ करना होगा। अर्थात् सम्मेलन का विरोध नहीं, सम्मेलन की विधि और दोष का विरोध हो।

एक दूसरे को गरियाने की अपेक्षा हिंदी/देवनागरी को तकनीकी दृष्टि से सहज और सुगम बनाने के प्रयासों की बड़ी आवश्यकता है वरना-
आज यदि सो जाएँगे हम तान कर चादर;
रोज़ ओढ़े जाएँगे फिर मान कर चादर.
- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 8-9.

हिंदुस्तानी ज़बान

हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुम्बई द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘हिंदुस्तानी ज़बान’ का नया अंक कई कारणों से पठनीय है. मुखपृष्ठ पर गिरिजा कुमार माथुर का गीत ‘पन्द्रह अगस्त’ (आज जीत की रात/ पहरुए सावधान रहना/ खुले देश के द्वार/ अचल दीपक समान रहना). बीच के पन्नों में गत वर्ष जन्मशताब्दी के अवसर पर अपेक्षाकृत कम याद किए गए गोपाल सिंह नेपाली की प्रसिद्ध कविता ‘रोटियों का चंद्रमा’ (रोटियों का चंद्रमा, बादलों के पार है,/ और मृत्यु-लोक में, रोज़ इंतज़ार है./ भीख की प्रथा चली, दान का प्रचार है./ भोर हो गई मगर, मूर्च्छना गई नहीं,/ रोटियाँ गरीब की, प्रार्थना बनी रहीं.). हिंदी दिवस पर कमलेश्वर की कहानी ‘नागमणि’ का पुनर्पाठ करते हुए डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे ने इसे गांधी युग के एक निष्ठावान और त्यागी कार्यकर्ता की करुण कहानी कहा है. उन्होंने भाषा के संबंध में तेजी से बढ़ रही हमारी पराधीनता के अलावा समाज की लक्ष्यहीनता के सन्दर्भ में भी इस कहानी को प्रासंगिक पाया है. स्वयं संपादक डॉ.माधुरी छेड़ा ने भी अपनी बात में नोटिस किया है कि ‘नागमणि’ के विश्वनाथ की तरह आज के हिंदी प्रचारक निराशा और हताशा के आलम में कह उठते हैं – अब कुछ नहीं हो सकता! आज़ाद भारत की तस्वीर कलरफुल होनी चाहिए थी वह नेगटिव होकर ग्रे हो गई और सरकार खलनायक. उनका यह प्रश्न पाठक को झकझोरता है कि क्या हम इस जनतांत्रिक व्यवस्था में आज़ाद भारत के जिम्मेदार नागरिक होने का अपना रोल ठीक से निभा रहे हैं.

हिंदी-उर्दू की इस द्विभाषी पत्रिका में दोनों भाषाओं को बराबर का हिस्सा दिया गया है. गांधीदर्शन से लेकर लोक साहित्य तक पर्याप्त वैविध्यपूर्ण विचारोत्तेजक सामग्री इसे पठनीय और संग्रहणीय बनाती है. 
हिंदुस्तानी ज़बान, त्रैमासिक शोध पत्रिका, जुलाई-सितंबर 2012, वर्ष 44, अंक 3, (सं) माधुरी छेड़ा, कार्यालय – महात्मा गांधी मेमोरियल रिसर्च सेंटर, महात्मा गांधी बिल्डिंग, 7 नेताजी सुभाष रोड, मुम्बई 400 002, पृष्ठ – 96, मूल्य – रु.20.
- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 61.


रत्नों की प्रकृति

बहुमूल्य रत्नों के साथ तरह तरह के मिथ और आग्रह जुड़े हुए हैं जिनके अनुसार यह माना जाता है कि रत्न और उपरत्न व्यक्ति ही नहीं, राष्ट्रों और सभ्यताओं तक की तकदीर पलट देते हैं. इन्हें ग्रह-नक्षत्र और राशियों से जोड़कर देखा जाता है. भाग्य-चिकित्सा के अलावा रत्न मनोचिकित्सा और रोग-निवारण के लिए भी चमत्कारी माने जाते हैं. सबसे बड़ा चमत्कार तो रत्नों की चमक में है जो उनकी कटाई से पैदा होती है और नज़र को बाँध लेती है. इसीलिए रत्न सबसे अधिक आकर्षक सौंदर्यप्रसाधन हैं. रत्न अलंकार भी हैं और अलंकृत भी.

रत्नों की चमत्कारी शक्ति और पहचान पर यों तो अनेक पुस्तकें मिलती हैं लेकिन उनकी प्रकृति का वैज्ञानिक विश्लेषण करने वाली एक अत्यंत प्रामाणिक कृति गत दिनों प्रकाशित हुई है – ‘द नेचर ऑफ प्रेशियस जेमस्टोन्स् एंड जेम्स’. लेखक गोविंद प्रसाद किमोठी नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में रहकर रत्नों के खनन का लंबा अनुभाव प्राप्त कर चुके हैं जो इस पुस्तक की विश्वसनीयता का आधार है. यह कृति बहुत अच्छी तरह कोयले से हीरा बनने की यात्रा का भी वर्णन करती है. लेखक ने रत्नों से जुड़ी हुई गाथाओं, पुराकथाओं और ज्योतिषीय मान्यताओं का विवरण देने के बाद विस्तार से इस विषय पर चर्चा की है कि भारत में रत्नों का उत्पादन कहाँ कहाँ होता है और इस उद्योग के विभिन्न आयाम क्या क्या हैं. अलग अलग रत्नों पर अलग अलग अध्यायों में सचित्र चर्चा की गई है. 

लेखक ने भारतीय सर्राफा बाज़ार में बिक्री के लिए उपलब्ध तमाम तरह के हीरे-जवाहरात के ऐतिहासिक और ज्योतिषीय ब्यौरे इस पुस्तक में दिए हैं. साथ ही यह भी बताया है कि एक ही नाम से किसी रत्न के कई सारे प्रकार बाज़ार में मिलते हैं जिनकी कीमत में ज़मीन आसमान का फर्क हो सकता है. प्रायः देखा गया है कि रत्नों के खरीदार रत्नों के सूक्ष्म भेद को पकड़ न पाने के कारण ठगे जाते हैं. ऐसे लोगों के लिए यह पुस्तक बड़े काम की है क्योंकि इसमें विस्तार से रत्नों के बहुमूल्य और साधारण होने की पहचान बताई गई है. 

27 अध्यायों वाली इस पुस्तक में भूगर्भ में बहुमूल्य रत्नों के निर्माण की प्रक्रिया, धरती में छिपे इस खजाने के संगृहीत होने की कहानी और रत्नों की पहचान के भौतिकीय-प्रकाशीय आधारों के अलावा दुनिया भर में इनकी आपूर्ति के स्रोत, कटाई-घिसाई-सजाई के साथ विपणन और व्यापार आदि पर भी विस्तार से चर्चा की गई है. यह जानना सुखद विस्मयकारी है कि हीरे आदि बहुमूल्य रत्नों की अनेक पहलुओं से कटाई और उनकी घिसाई के काम में भारत सदियों से सारी दुनिया में अग्रणी रहा है.यह कला दुनिया को भारत की ही दें है. स्मरण रहे कि सही कटाई-घिसाई-सजाई से ही साधारण लगने वाले पत्थर की चमक उभर कर आती है और उसकी यह चौध ही उसे बहुमूल्यता का संस्कार देती है.अभिप्राय यह है कि यह पुस्तक रत्नों में रुचि रखने वाले जन साधारण के लिए तो उपयोगी है ही, वैज्ञानिक अध्येताओं और रत्न-व्यवसायियों को भी रत्नविज्ञान पर संक्षेप में सर्वांग जानकारी के लिए इस पुस्तक को पढ़ना ही चाहिए.
द नेचर ऑफ प्रेशियस जेमस्टोन्स् एंड जेम्स,

गोविंद प्रसाद किमोठी, 
2012, 
प्रोफेशनल बुक पब्लिशर, हैदराबाद, 
पृष्ठ – 140, 
मूल्य – रु. 200.
- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 60-61.

केजरीवाल का स्वराज

महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ [1908] के 102 वर्ष बाद केजरीवाल का ‘स्वराज’ [2012] आया है. वह भी एक आदर्श स्वप्न था, यह भी एक आदर्श स्वप्न है. केजरीवाल न तो महात्मा हैं न गांधी; लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की उनकी जिद उन्हें आज के तमाम यथास्थितिवादी परिवेश के बीच औरों से अलग पहचान देती है. गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ के मॉडल पर नए भारत के निर्माण की कामना की थी जिसे उनके जीते-जी उनके प्रिय उत्तराधिकारियों ने दरकिनार कर दिया था. केजरीवाल के ‘स्वराज’ को उनके प्रिय पुरोधा अन्ना हजारे ने व्यवस्था परिवर्तन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आंदोलन का घोषणापत्र और ‘असली स्वराज लाने का प्रभावशाली मॉडल’कहा है – दोनों के आपसी अंतर्विरोध अपनी जगह ! 

2011 के भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन की दयनीय परिणति का एक कारण जन असंतोष को राजनैतिक चेतना में न बदल पाना रहा. अरविन्द केजरीवाल की यह पुस्तक उसी का रास्ता बताती है. 175 पेज की इस पुस्तक में याद दिलाया गया है कि भारत की आज़ादी आज़ादी नहीं मात्र गोरे शोषकों के हाथों से काले शोषकों के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण थी. गांधी चाहते थे कि मुल्क से अंग्रेजियत चली जाए भले अँगरेज़ यहाँ रहें. केजरीवाल बताते हैं कि अँगरेज़ चले गए लेकिन अंग्रेजियत नहीं गई – सारी व्यवस्था वही बनी रही जो अंग्रेजों ने स्थापित की थी. स्वराज अभी तक नहीं आया – स्वराज मतलब जनता का राज, हमारा राज. केजरीवाल चाहते हैं कि अपने गाँव, अपने शहर, अपने मोहल्ले के बारे में सीधे जनता निर्णय ले तथा संसद और विधानसभाओं में पारित होने वाले क़ानून भी जनता की मर्जी से बनाए जाएँ. संदेश साफ है कि संविधान के बदलने का समय आ गया है. इस काम में जितना विलम्ब होगा लोककल्याण और सहज मानवीय न्याय पर आधारित भारतीय प्रकृति वाले जनतंत्र की स्थापना उतनी ही दूर होती जाएगी. 

स्वराज की राह देख रही देश की आम जनता को समर्पित इस ‘स्वराज’ में पहले तो यह खुलासा किया गया है कि वर्त्तमान व्यवस्था जनता से पूरी तरह विमुख है, फिर यह माँग की गई है कि जनता का तिलक करो.इसके लिए ज़रूरी होगा कि सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण हो, सरकारी पैसों पर नियंत्रण हो, ग्राम सभाओं को सशक्त बनाया जाए, कानूनों और नीतियों पर जनता की राय ली जाए, प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हो, सरकार के विभिन्न स्टारों के बीच कार्य विभाजन हो, निर्णय लेने का हक लोगों के पास हो तथा पंचायती राज व अन्य कानूनों में व्यापक बदलाव किया जाए. ऐसी ही अनेक अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं और पाठकों का आह्ववान किया गया है कि लेखक के आंदोलन का हिस्सा बनें. पर दिल्ली अभी दूर लगती है क्योंकि जिस व्यापक सामाजिक, राजनैतिक और संवैधानिक बदलाव की ज़रूरत इक्कीसवीं सदी के भारत को है उसके लिए एकमत होकर जूझने वाली जनशक्ति का संगृहीत होना बिलकुल आसान नहीं है. फिर भी जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह मंगल कामना तो की ही जा सकती है –
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।

स्वराज; 
अरविन्द केजरीवाल; 
2012,
हार्पर हिंदी, ए – 53, सेक्टर 57, नौएडा – 201301; 
पृष्ठ - 175, 
मूल्य – रु. 99 .

- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 60.

बुधवार, 29 मई 2013

साहित्य, संस्कृति व शिक्षा : वर्तमान संदर्भ में

राष्ट्रीय संगोष्ठी/ मुंबई/ 23-24 मई 2013 

23 - 24 मई 2013 को गोखले सोसायटी के शिक्षा महाविद्यालय में संगोष्ठी थी. विषय रहा – “साहित्य, संस्कृति व शिक्षा : वर्तमान संदर्भ में”. डॉ. त्रिभुवन राय के आदेश पर अपुन भी जा धमके. अच्छा रहा क्योंकि कई विभूतियों के दर्शन लंबे अरसे बाद करने का मौका मिल गया – प्रो. सुरेश उपाध्याय, प्रो. एस. बी. पंडित, श्री कैलाश चंद्र पंत, प्रो. रामजी तिवारी, डॉ. दामोदर खडसे, प्रो. केशव प्रथमवीर, डॉ. विद्या केशव चिटको, डॉ. इंदिरा शुक्ला आदि. और हाँ, कथालेखिका सूर्यबाला जी भी तो थीं. डॉ. महेंद्र कार्तिकेय बहुत याद आए – उन्होंने ही तो समकालीन साहित्य सम्मलेन के माध्यम से इन सबसे बरसों पहले मुझ साधनहीन का परिचय कराया था; और भी तमाम साहित्यकारों से रूबरू होने का अवसर देने वाले कवि महेंद्र कार्तिकेय को सभी ने याद किया. सुनने में आया कि श्रद्धेय चंद्रकांत बांदिवडेकर को भूलने की बीमारी ने घेर लिया है – वैसे स्वस्थ हैं; उनसे मिलने न जा सकने का मलाल है. खैर! संगोष्ठी विचारोत्तेजक रही. इसलिए भी मेरे लिए स्मरणीय कि जिस सत्र की अपुन ने अध्यक्षता की प्रो. रामजी तिवारी उसके प्रमुख वक्ता थे – गौरव दिया उन्होंने इस अकिंचन को. एक सत्र में अपुन को प्रमुख अतिथि की भूमिका निभानी पडी, तो कुछ दिन पहले इस विषय पर जो फोनिक गुफ़्तगू प्रो.देवराज से हुई थी उसे चिपका दिया. वे ही कुछ बिंदु यहाँ सहेज रहा हूँ ताकि सनद रहे.

साहित्य, संस्कृति व शिक्षा : वर्तमान संदर्भ में


• दूसरे विश्वयुद्ध के बाद में, खासकर जैसे जैसे हम बीसवीं शताब्दी के अंत की ओर बढ़े वैसे वैसे ही दुनिया में नए ध्रुव बनने शुरू हुए – संस्कृति में भी; शिक्षा में भी और साहित्य में भी 

• इस नए परिवेश के बारे में तीन चीज़ें खास तौर से विचारणीय हैं. एक तरफ तो ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का मुद्दा उठाया गया – पहली चीज़ तो यही है.

• दूसरी यह है कि उपनिवेशवाद से आगे बढ़ करके ‘नव-उपनिवेशवाद’ शुरू हुआ. 

• और तीसरी चीज यह है कि एक ‘सुरक्षित साम्राज्यवाद’ की धारणा शुरू हुई जो इंग्लैंड से शुरु होती है. बाकायदा जो कूटनीतिक लॉबी रही इंग्लैंड में, इन चालीस सालों में उसने बहुत कुशलता से लेख लिख करके, पुस्तकें प्रकाशित करके इस संदर्भ में एक पारिभाषिक चीज गढी जिसे उन्होंने ‘सुरक्षित साम्राज्यवाद’ कहा. 

• इस तरह जिसे हम आज साहित्य, संस्कृति और शिक्षा विषयक विमर्श का ‘वर्त्तमान संदर्भ’ कह रहे हैं उसका निर्माण तीन चीज़ों से हुआ है – 1. सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत, 2. नव-उपनिवेशवाद और 3. सुरक्षित साम्राज्यवाद. 

• इसमें संदेह नहीं कि इन सबके पीछे कुछ देशों के, और कुछ समाजों के, उच्च अहम् की भावना काम करती रही है क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद में जो एक नई दुनिया बनी उसमें गरीब देशों ने अपने बारे में सोचना शुरू किया और उसमें एक उभार शुरू हुआ. यह उभार जो पश्चिम के देश हैं - खासकर ब्रिटेन है, और अमेरिका है, उन देशों के लिए खतरनाक साबित होने जा रहा था. 

• तो इन लोगों ने मिल करके, यूरोप और अमेरिकन लोगों ने मिल करके; और इंग्लैंड के लोग साथ में शामिल हो गए इनके; और इन देशों ने उन देशों को दबाना शुरू किया जिन्हें वे तीसरी दुनिया के देश कहते थे.

• और इसमें एक नया परिवर्तन यह हुआ कि तीसरी दुनिया के कुछ देश ऐसे भी थे जिनके पास बहुत सारे प्राकृतिक संसाधन तो नहीं थे पर एक-दो ऐसे प्राकृतिक संसाधन थे जिनसे वे पूरी दुनिया को अपने पक्ष में मोड़ सकते थे या दुनिया के निर्णयों को प्रभावित कर सकते थे. जैसे अरब देश. या पश्चिम एशिया के वे देश खासकर जिनके पास तेल का अपूर्व भंडार था; अभी भी है. तो जब इन देशों ने अपने बारे में सोचना शुरू किया और जब ईरान जैसे देश में लोकतंत्र की थोड़ी सी हवा बहनी शुरू हुई, कठमुल्लापन को पराजित करके और कुछ नई धारणाएँ शुरू हुईं, फैशन शुरू हुआ, नई तरह की शिक्षा शुरू हुई; तेहरान विश्वविद्यालय में बहुत खुला वातावरण शुरू हुआ और अरब के बहुत सारे लोग वहाँ आकर पढ़ने लगे – तो इस सबने कुछ खास देशों या कुछ साम्राज्यवादी देशों के कान खड़े कर दिए. 

• और वहाँ से इन देशों ने एक नया टर्म विकसित किया – सभ्यताओं का संघर्ष. इस सभ्यताओं के संघर्ष ने युद्धों को जन्म दिया नए सिरे से. और यह जो सभ्यता के संघर्ष के पीछे का जो छद्म है – इसको भी तीसरी दुनिया के देश जानते हैं, पहचानते हैं – खासकर बुद्धिजीवी पहचानते हैं.

• और युद्ध वास्तव में किस कारण से हुए या खड़े किए गए, इस चीज को भी अनुभव करते हैं – गरीब देशों के लोग. तो उन्होंने इसका प्रतिरोध करना शुरू किया और क्योंकि वे शक्तिशाली ज्यादा नहीं थे इसलिए वे अधिक कुछ कर नहीं सके. और सभ्यता के संघर्ष के नाम पर घोषित कर दिया गया कि जो पश्चिम एशिया और अरब देशों की सभ्यता है वह हिंसक है और रूढ़ है और प्रगतिविरोधी है – उसको दबाना जरूरी है – और उसे दबाने की कोशिश भी हुई. इसने पूरी दुनिया की संस्कृति को नए सिरे से प्रभावित किया. तो यह एक बड़ा मुद्दा है. 

• उधर इंग्लैंड में जो धारणा शुरू हुई थी – मतलब एक तरह से साम्राज्यवाद का पुनर्जन्म जो इंग्लैंड में हुआ - उनके मन में, लोगों ने, कहना चाहिए कि उसे आगे बढ़ावा दिया – उन्होंने एक नया टर्म गढा – जिसे ‘सुरक्षित साम्राज्यवाद’ उन्होंने कहा. 

• सुरक्षित साम्राज्यवाद यह है कि इंग्लैंड के लोग और पश्चिम के लोग – यूरोप के लोग खासकर, यह मानते हैं कि उनकी जो व्यवस्था है वह बहुत सफल व्यवस्था है – आदर्श व्यवस्था है – और उस व्यवस्था को सुरक्षित रखना जरूरी है; और उसे सुरक्षित रखने के लिए उन देशों को दबाना जरूरी है जो खासकर एशियन देश हैं या अफ्रीकन देश हैं. तो यह जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए दूसरे देशों को दबाने की नीति है यह सुरक्षित साम्राज्यवाद है. 

• और इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण यह है कि ये जो साम्राज्यवादी शक्तियां है इनमें भी आपस में प्रतिस्पर्धा है. इसीलिए जब यूरोपीय संघ बना तो इंग्लेंड ने सायास उससे अपने को अलग रखा – अपनी पहचान के नाम पर – वह शामिल नहीं हुआ . यह उनका आतंरिक सुरक्षित साम्राज्यवाद था 

• यह जो एक आतंरिक साम्राज्यवाद था – केवल इंग्लैंड का था – और एक सुरक्षित साम्राज्यवाद इंग्लैंड और यूरोप का मिला-जुला साम्राज्यवाद था. इसने पूरी दुनिया का नया वातावरण बनाकर खड़ा कर दिया 

• और उधर अमेरिकी नीति के तहत खुली अर्थ व्यवस्था के नाम पर जो बाजारवाद शुरू हुआ और सारी दुनिया को बाजार के रूप में बदलने की जो कोशिशें हुईं, उसके पीछे भी अमेरिकन हित खासकर जुड़े हुए हैं. चूंकि उसका उत्पादन बिकना है या समृद्ध देशों का उत्पादन बिकना है - जो उसके बाजार की जरूरत है. 

• इसने भाषा बदल दी पूरी तरह से. भाषा बदल दी – मतलब भाषा का छद्म पहले की अपेक्षा सबसे अधिक बढ़ गया. 

• और शिक्षा का छद्म भी बढ़ा. 

• इससे नई समस्याएं पैदा हुईं – नई चुनौतियां पैदा हुईं.

• भाषा का छद्म बढ़ा – भाषा में अपने स्वार्थों को छिपाने की कोशिशें पहले की अपेक्षा अधिक हो गईं. जो चालाक देश हैं उन्होंने इसको किया. 

• यह जो भाषा का छद्म है इसे हम देख ही रहे हैं. यहाँ तक कि अमेरिकन नीति यह है कि जो उसके हितों के पक्ष में है वह उसका दोस्त है और जो उसके हितों के काम नहीं आ रहा है वह उसका दुश्मन है – बीच का कोई रास्ता नहीं हैं उसके यहाँ. लेकिन इसे कभी कहता नहीं है वह. वह हमेशा या तो लोकतंत्र का नाम लेता है, या सभ्यता को बचाने का नाम लेता है, या जनता को तथाकथित तानाशाहों के पंजों से मुक्त करने का नाम लेता है – चाहे वह सद्दाम के हाथ से मुक्त करना हो या फिर चाहे सीरिया के सुलतान के हाथ से मुक्त करना हो या कि त्रिपोली के गद्दाफी के हाथ से मुक्त करना हो. वह कभी यह नहीं कहता कि वह अपने स्वार्थों के लिए ऐसा कर रहा है. बल्कि लोकतंत्र का मसीहा बनने का पाखंड रचता है. यह भाषा का सबसे बड़ा छद्म है जो किसी भी शताब्दी से ज्यादा है. 

• भारतीय राजनीति और प्रशासन से लेकर मीडिया और विज्ञापन तक के लिए भी यह बात उतनी ही लागू है. भाषा अभिव्यक्ति का नहीं पाखंड का माध्यम बन कर रह गई है.

• इसी प्रकार शिक्षा का छद्म यह है कि शिक्षा के नाम पर एक मूल्यहीन दुनिया गढ़ी जा रही है. हम बहुत आसानी से देख सकते हैं कि आज शिक्षा के कौन से रूप प्रभावशाली बन गए हैं. अगर हम यह मानते हैं कि शिक्षा सुधार के लिए होती है – संशोधन के लिए होती है - तो यह वह अर्थ है जिसे बहुत पीछे फेंक दिया गया है 

• अब तो संस्कृति, इतिहास और समाजबोध विहीन आई टी है. मनुष्यता के सारे मूल्यों से विहीन कंप्यूटर शिक्षा है. यह शिक्षा का छद्म है. 

• हम कह रहे हैं कि हम दुनिया में शिक्षा बढ़ा रहे हैं और इसको स्थापित करने के लिए हमने एक नया शब्द गढ़ लिया है – जॉब ओरियंटेड – रोजगारोन्मुख. रोजगारोन्मुख वह है जिसमें मशीनीकरण सबसे अधिक है या सूचनाओं का संग्रह सबसे अधिक है – और जीवन का विश्लेषण सबसे कम है. यह शिक्षा का छद्म है. 

• यह जो परिवर्तन हुआ है दुनिया में– इसने एक नया परिदृश्य रच दिया है और इस परिदृश्य में शिक्षा हो – चाहे संस्कृति हो – चाहे साहित्य हो, इन तीनों की भूमिकाएँ बदल गई हैं, इन तीनों की विश्वसनीयता भी बदल गईं हैं और इन तीनों की जिसे हम कहते हैं रचनात्मक शक्ति -जो इन तीनों में होती है एक साथ मिल करके – उसके उद्देश्य भी बदले गए हैं पूरी तरह से.

• तो हमें इन सबको सोच करके यह ध्यान करना होगा – सबसे पहले यह तय करना होगा - कि शिक्षा के सामने कौन सी नई चुनौतियां आ गईं हैं, संस्कृति के सामने कौन सी नई चुनौतियां आ गईं हैं और साहित्य के सामने कौन सी नई चुनौतियां आ गई हैं 

• उदाहरण के लिए आज साहित्य खुद अपनी भाषा से सबसे अधिक जूझ रहा है और बहुत चालाकी से जो साहित्य के मरने की घोषणाएं की जाती रही हैं – साहित्य को उन घोषणाओं से भी जूझने को बाध्य होना पड़ रहा है 

• इस तरह, ये कुछ मुद्दे हैं साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के वर्त्तमान संदर्भ से जुड़े हुए; जिन पर विचार करके ही हमें मनुष्यता के भविष्य की रणनीति बनानी होगी और पुरानी चीजों को न दोहरा करके नई परिस्थितियों में ही इनकी नई भूमिका को देखना होगा.

मंगलवार, 21 मई 2013

आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता : व्याख्यान





16/17 मई 2013 को कर्नाटक विश्वविद्यालय [धारवाड] के हिंदी विभाग में विशेष व्याख्यानमाला के
अंतर्गत 'संरचनावाद', 'उत्तर संरचनावाद', 'आधुनिकता' और 'उत्तर आधुनिकता' पर
डॉ. ऋषभ देव शर्मा (प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) के 4 व्याख्यान हुए.

प्रस्तुत है उनमें से चौथा व्याख्यान -
"आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता".

उत्तर संरचनावाद : व्याख्यान





16/17 मई 2013 को कर्नाटक विश्वविद्यालय [धारवाड] के हिंदी विभाग में विशेष व्याख्यानमाला के
अंतर्गत 'संरचनावाद', 'उत्तर संरचनावाद', 'आधुनिकता' और 'उत्तर आधुनिकता' पर
डॉ. ऋषभ देव शर्मा (प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) के 4 व्याख्यान हुए.

प्रस्तुत है उनमें से तीसरा व्याख्यान -
"उत्तर संरचनावाद (POST STRUCTURALISM)".

रविवार, 19 मई 2013

संरचनावाद - 2/2 : व्याख्यान

!! पहले दिन का दूसरा व्याख्यान ...... ताकि अपने छात्रों के काम आ सके !!




16/17 मई 2013 को कर्नाटक विश्वविद्यालय [धारवाड] के हिंदी विभाग में विशेष व्याख्यानमाला के
अंतर्गत 'संरचनावाद', 'उत्तर संरचनावाद', 'आधुनिकता' और 'उत्तर आधुनिकता' पर
डॉ. ऋषभ देव शर्मा (प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) के 4 व्याख्यान हुए.
प्रस्तुत है उनमें से दूसरा व्याख्यान - "संरचनावाद -2".

संरचनावाद -1/2 : व्याख्यान

प्रो. सुमंगला मुम्मिगट्टी के बुलावे पर कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड, जाना हुआ. रास्ते भर मेरे खर्राटों ने पिछली सीट वाली एक भद्र महिला को इतना सताया कि वे पूरी रात मुझे अंग्रेजी में गरियाती रहीं और सो न सकीं. मैं आत्मग्लानि से भरा-भरा रहा - पर अवोमिन भी खा रखी थी वमन टालने को इसलिए चाहकर भी जाग नहीं पा रहा था. धारवाड पहुंचकर भी मन अपराधबोध से ग्रस्त रहा काफी देर. पर जब व्याख्यान-कक्ष में गया और पूरा भरा हाल श्रवणोत्सुक पाया तो भला लगा. खैर! यहाँ है पहले दिन का पहला व्याख्यान.... (शायद हमारे विद्यार्थियों के किसी काम का हो).....


16/17 मई 2013 को कर्नाटक विश्वविद्यालय [धारवाड] के हिंदी विभाग में विशेष व्याख्यानमाला के
अंतर्गत 'संरचनावाद', 'उत्तर संरचनावाद', 'आधुनिकता' और 'उत्तर आधुनिकता' पर
डॉ. ऋषभ देव शर्मा (प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) के 4 व्याख्यान हुए.
प्रस्तुत है उनमें से पहला व्याख्यान - "संरचनावाद -1".

सोमवार, 13 मई 2013

अहेतुक परमप्रेम के अमर गायक सूरदास

उन्होंने कृष्ण को पंडितों की कैद से मुक्त किया


वैशाख शुक्ल पंचमी को महाकवि सूरदास की जयंती मनाई जाती है. सूरदास के जन्मस्थान, नाम, जाति, संप्रदाय और जन्मांधता को लेकर अनेक मत हो सकते हैं, किम्वदंतियां हो सकती हैं लेकिन इस सत्य पर कोई मतभेद नहीं कि वे कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा ही नहीं बल्कि समूचे हिंदी काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवियों में सम्मिलित हैं. वे कृष्ण-प्रेम के अमर गायक हैं. सूर के यहाँ भक्ति और प्रेम परस्पर पर्याय हैं. जाति-पांति, कुल-शील आदि यहाँ नगण्य हैं, सर्वथा तुच्छ – ‘जाति गोत कुल नाम गनत नहिं, रंक होय कई रानो!’ कृष्ण स्वयं प्रेम हैं. उन्हें केवल प्रेम से ही पाया जा सकता है –
प्रेम प्रेम सो होय, प्रेम सों पारहि जैये.
प्रेम बंध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैये.
एकै निश्चय प्रेम को, जीवन्मुक्ति रसाल.
सांचो निश्चय प्रेम को, जिहिं तैं मिलैं गुपाल. 

कहना न होगा कि सूर हिंदी के भागवतकार हैं जिन्होंने कृष्ण को पंडितों की कैद से निकालकर जनसाधारण के आँगन में खेलने के लिए उन्मुक्त किया. उन्होंने ‘सूरसागर’ के दसवें स्कंध में अपने काव्य नायक कृष्ण की बचपन और किशोरावस्था की लीलाएँ गाई हैं. परिवार, प्रेम और गाँव की निरंतर उपस्थिति ने इन लीलाओं को भारतीय लोकमानस का कंठहार बना दिया है. परिवार और प्रेम दोनों ही के केंद्र में हैं कृष्ण. कृष्ण अवतारी पुरुष और राजपुत्र नहीं हैं यहाँ. वे तो पूरे नंदगाँव के बेटे हैं. उनका जन्म गाँव भर को उछाह से भर देता है. सूरदास स्वयं इस उछाह में भागीदार बने हैं और तब तक नंदबाबा की ड्योढ़ी पर अड़े रहने की ज़िद बाँधे हुए हैं जब तक बालक कृष्ण हँसकर उनसे कुछ बोल नहीं लेते. विचित्र है यह अंधा बाबा भी. अरे बाबा अब जाओ भी. पर नहीं, अड़े हैं कि जब गोवर्धन से दौड़कर आए हैं तो भला ऐसे ही थोड़े चले जाएँगे. बड़े गँवार हो बाबा. कोई ऐसे भी हठ करता है? बधावे और आशीष दिए जा रहे हैं – 
(नंद जू) मेरे मन आनंद भयौ, मैं गोवर्धन तैं आयौ.
तुम्हारे पुत्र भयौ, हौं सुनि कै, अति आतुर उठि धायौ.
नंदराइ सुनि बिनती मेरी तबहि बिदा भल है हौं.
जब हँसि कै मोहन कछु बोलैं, तिहि सुनि कै घर जाऊँ.
हौं तो तेरे घर कौ ढाढ़ी ‘सूरदास’ मोंहि नाऊँ. 

कृष्ण की समस्त बाललीला में सूरदास ने पूरे ब्रजमंडल को शामिल किया है जो उनके मन में बसे सामूहिकता के गँवई संस्कार का प्रतीक है. कृष्ण का सोना, जागना, रेंगना, रीझना, खेलना – सब कुछ सार्वजनिक हैं. वे सबके हैं. सबका उन पर एक-सा प्यार है. एक-सा अधिकार. ‘कृष्ण जितने यशोदा को प्रिय हैं, ब्रजवासियों को उससे कम प्रिय नहीं हैं. उलूखल बंधन के समय सारे ब्रजवासी यशोदा को क्या नहीं सुनाते – विशेषतः गोपियाँ. यशोदा का हृदय पत्थर है. उसमें दया-ममता नहीं है, वह निर्मोही है. उम्र में बड़ी और सयानी होने पर भी उसे यही बुद्धि मिली है. कितनी मनौतियाँ मानने पर एक बेटा हुआ है. उसे कितनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ी हैं. उसी को मारकर पितरों को पानी दे रही है. ऐसे निर्दयी के पास कौन बैठे? अत्यंत खिन्न ब्रजबालाएँ अपने-अपने घर चली जाती हैं. बलराम भी दुखी हो उठते हैं. तात्पर्य यह है कि इस सुख-दुःख में पूरा समुदाय सम्मिलित है.’ (डॉ.बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.133). 

सबको भली प्रकार मालूम है कि कृष्ण बेहद उधमी, उपद्रवी और आतंककारी बालक हैं. पर नहीं, आप माँ हैं तो क्या हुआ? उन्हें इस तरह बाँधकर नहीं रख सकतीं. लगता है, सारा गाँव बच्चों के मानवाधिकारों का अलमबरदार बन गया हो. यशोदा की हिम्मत नहीं है कि कह दें तो ज़रा, हमारा घरेलू मामला है जी ये. ना, यह तो सबका मामला है, पूरे ब्रज का मामला है. तभी तो ये ही गोपियाँ शिकायत के बहाने जब-तब कृष्ण को देखने आती रहती हैं. इस सारे व्यवहार में लोकजीवन का वह रस झलकता और छलकता है जिसकी मधुरता का पान कराकर सूरदास ने मध्यकाल में दबी-कुचली भारतीय जाति को जीवनेच्छा का पाठ पढ़ाया. वास्तव में ‘यहाँ केवल वात्सल्य का चित्रण नहीं वरन उसे केंद्र में रखकर समूचा घर-परिवार-कुटुंब चित्रित होता है. कृष्ण की ब्यौरेवार दिनचर्या, संस्कारों और उत्सवों के क्रमिक चित्रण में एक पूरा परिवार और ग्रामीण समाज उभर कर सामने आता है. आगे चलकर युवा कृष्ण का जीवन भी एकदम निरपेक्ष या एकांतिक नहीं है, पूरा गाँव किसी-न-किसी रूप में उसमें भागीदार है. बसंतोत्सव और रास के विविध सामूहिक आयोजन इसके व्यावहारिक प्रमाण हैं.’ (डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ.54). 

गँवई संस्कार का प्यार भी किसी तरह की कुंठा और व्यक्तिगतता नहीं जानता. साहचर्य से उपजता है न. राधा और कृष्ण दोनों ही अपरूप रूपवान हैं. बड़ी-बड़ी आंखों वाली राधा. माथे पर रोली लगाने वाली राधा. गोरे तन पर नील वसन पहनने वाली राधा. पीठ पर वेणी लहराती राधा. बचपना है तो क्या – ‘सूर श्याम देखत ही रीझे नैन-नैन मिली पड़ी ठगौरी.’ बातों-बातों में रसिक शिरोमणि ने भोली बालिका को मोह लिया. संबंध पल-प्रतिपल बढ़ने लगा. एक अप्रतिम प्रेम जगा और गाँव की मिट्टी में परवान चढ़ा. अनन्य प्रेम. प्रगाढ़ प्रेम. प्रतिपल आत्मसमर्पण को विकल प्रेम. लड़कपन का यह प्यार तकरार में भी बढ़ता गया. गाय चराना हो या दुहना, प्यार भरी तकरार चलती रही और कभी दान के बहाने तो कभी मान के बहाने, कभी पनघट पर तो कभी मधुबन में गोपियाँ कृष्ण पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती रहीं. और तब आया वह क्षण. देह से प्राण को खींचकर ले जाने का क्षण ! कृष्ण तो पूरे ब्रजमंडल के थे – सबके अपने, सबके प्रिय, सबके वल्लभ, सबके प्राण. और वही मथुरा गए तो वहीं के हो गए. कहने को तो कहते रहे ‘ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं.’ पर नदी पार करके मथुरा से गोकुल न आ सके. शहर से गाँव नहीं लौट सके. 

सूरदास जानते हैं, शहर आदमी को किस तरह चालाक बना देता है. इस काजल की कोठरी में जो गया, वही काला हो गया. गोपियों का प्रेम उज्ज्वल है, एकनिष्ठ है. गँवार जो ठहरीं! कृष्ण मथुरा में जाकर सचमुच काले हो गए हैं. उनमें वह पहले-सी पारदर्शिता नहीं रही. अब वे राजपुरुष हो गए हैं – ‘हरि हैं राजनीति पढ़ि आए.’ राजनीति मनुष्य को लंपट बना देती है. ‘भ्रमरगीत’ का भँवरा इस नगरीय लंपटता का भी प्रतीक है. इसी से कृष्ण और उनके संदेशवाहक उद्धव की कोई बात गोपियों की समझ में नहीं आती. डॉ.बच्चन सिंह ने इस ओर ध्यान खींचा है – ‘राजनीतिज्ञों की बात न तब समझ में आती थी और न अब आती है. सारी कथनी ऊलजलूल, सारी करनी छल-प्रपंच. वे कहती हैं कि राजधर्म तो वह है जहाँ प्रजा सताई न जाए. ‘राजगतिक लीला’ बेचारे अहीर क्या जानें. गोपियाँ जानती हैं कि मुरली धारण करना उन्हें अच्छा नहीं लगता, गोपियों का नाम लेने पर सहम जाते हैं, गायों का चित्र देखने से उनके बड़प्पन को धक्का लगता है. वे मर्माहत होकर व्यंग्य से कहती हैं – ‘वै राजा तुम ग्वारि बुलावत’. अरे वे राजा हैं, गँवारों के बीच क्यों आने लगे? कृष्ण की बाललीला, रासलीला आदि की ओर पंडितों का ध्यान गया है, पर ‘राजगतिक लीला’ की ओर नहीं गया है. सूर ने अन्य लीलाओं की तरह कृष्ण की ‘राजगतिक लीला’ भी लिखी है.’ 

कृष्ण तो आखिर कृष्ण ठहरे. कल तक ‘चोर-जार-शिखामणि’ थे. आज ‘अनासक्त-योगेश्वर’ बन गए. कल तक ‘राधा-वल्लभ’ थे. आज ‘रुक्मणि-रमण’ हो गए. जैसे ब्रज की गायों, कुंजों और यमुना का स्मरण करते थे, वैसे ही गोपियों और राधा का भी. पर राधा भी राधा ही थीं. कृष्ण वंशीधर से चक्रधर हो गए, लेकिन राधा की साड़ी नीली ही रही. कृष्ण की स्मृतियों की गंध से भरी साड़ी भला धोई कैसे जा सकती है. यह नीला वर्ण तो कृष्ण का वर्ण है. राधा से अलग कैसे हो सकता है. है न गँवई प्यार के पागलपन का चरम उत्कर्ष? अहेतुक परमप्रेम ही तो भक्ति है! सूर की राधा परमप्रेम रूपा हैं – स्वयं भक्ति हैं. 

‘सूरसागर’ के अंत में राधा-कृष्ण मिलते हैं - कुछ पल के लिए. यह मिलन भी कोई मिलन है? कृष्ण तो अपनी महारानी से राधा का परिचय कराने आए हैं. क्या गुजरी होगी राधा पर जब दूर से कृष्ण ने इशारा करके कहा होगा – ‘वह जो युवतियों के बीच में खड़ी है ना – अरे वही गोरे वाली – हाँ, जिसने नीली साड़ी पहनी है – वही तो है राधा.’ चरम कारुणिक है राधा के प्रेम का यह अंत जिसमें मिलकर भी मिलना संभव नहीं. ऊपर से कृष्ण का यह आश्वासन कि मैं तो निरंतर तुम्हारे ही साथ हूँ, अब लौट जाओ. एक परम विश्वासिनी स्त्री के समक्ष एक विश्वासघाती विवश पुरुष की खिसियानी हँसी – 
बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर,
यह कहि कै उन ब्रज पठई.
सूरदास प्रभु राधा-माधव,
ब्रज-बिहार नित नई-नई.

चमन में तन कहाँ खुशबू छिपाए....

पुस्तक : पत्तों पर पाजेब,
 कवि : अविनाश कुमार,
 संस्करण : 2011,
 प्रकाशक : वाणी प्रकाशन,
 4695, 21-ए, दरियागंज,
 नई दिल्ली - 110002,
 पृष्ठ : 122,
 मूल्य : रु. 200 (हार्डबाउंड).
हथौड़े की चोट को वे बेहतर जानते हैं जिन्हें लोहे की तकदीर मिली है और जो निहाई पर पड़े हैं. सभी की आँख हाथों की इस सफाई पर दीवानी है कि जिसके हाथ में खंजर था वह अब भोला कबूतर है. भूखे बच्चों की रोटी का मसला अब कोई मसला नहीं है, थाली में पानी भरकर चाँद दिखाने भर से काम चल जाता है. आजकल बच्चे युद्ध के नक़्शे में उलझकर शांति का रास्ता पूछते हैं. ऐसा क्यों होता है कि जिन बच्चों पर बचपन का कोई मौसम नहीं आता, वक्त उनके कुसुम-कोमल हाथों में शमशीर थमा देता है. नए पत्ते दुःख से भरे हैं और फूल थर-थर काँप रहे हैं क्योंकि कुछ दिनों से हवा गुलशन में खंजर लहराती घूम रही है. तमाम विदूषकों ने साहित्य के ध्वज उठा रखे हैं. और लगातार फतवे जारी कर रहे हैं जब कि कविगण बेहद लाचार हैं. 

इन तमाम सरोकारों से जुडे कवि अवनीश कुमार (1969) का दूसरा कविता संग्रह है ‘पत्तों पर पाजेब’ (2011) जिसमें उनकी 84 ग़ज़लें और 17 नज़्में संकलित हैं. उनका भाषा संस्कार यद्यपि उर्दू रुझान वाला है लेकिन रचना तेवर समकालीन हिंदी कविता से गहरे संपृक्त है. यही कारण है कि यथार्थ और रोमान को वे बहुत अच्छी तरह गूँथते हैं और अपना एक निजी स्वप्न जगत रचते हैं. सुख-दुःख के हर मौसम से गृहीत गंध के तमाम बिंब इन रचनाओं को पठनीय बनाते हैं. साथ ही जीवन को सुंदरतर बनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं. यह कवि की अपनी इस स्थापना के अनुरूप ही है कि “एक ड्रीमलैंड की रचना किसी आइडियोलॉजी के तहत नहीं – सिर्फ इसलिए होती है कि वह मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है; एक स्वप्न के कारण कि यथार्थ को, जीवन को और बेहतर बनाया जा सकता है.” 

कवि को इस बात का मलाल है कि - अहसास का बोझ उठाते-उठाते लफ़्ज़ कुली हो गए हैं/ चमन में तन कहाँ खुशबू छिपाए कि उसका पैरहन तक जल गया है/ रोशनी नन्हे चिरागों के हवाले करके सूरज गुमनाम सी वादी में उतर जाता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कोमल संवेदनाएँ मर गई हों. यथार्थबोध के साथ ही कवि का सौंदर्यबोध भी जागृत है – कल बरसे बादल तेरे घर नमी थी मेरे अश्कों की, कच्चे आँगन से उठती है खुशबू क्या? खत में लिखना/ जब वो बोले लगे कानों में शहद सा घुल गया, पहन रक्खीं नीम की सींकों की जिसने बालियाँ/ किशोरी धूप दर्पण देखकर खुद से लजाई है, सूर्य ने जबसे उसके ब्याह की चर्चा चलाई है/ उसका इश्क मेरे लहू में दौड़ता है, मैं उसके साथ ही मुकम्मल होता हूँ. 

‘गोरा’ का सबसे प्रामाणिक अनुवाद

पुस्तक : गोरा, 

लेखक : रवींद्रनाथ ठाकुर, 
अनुवादक : प्रो.देवराज,
संस्करण : 2012, 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, 
1 – बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली - 110002, 
पृष्ठ : 416, 
मूल्य : रु. 500 (हार्डबाउंड).



इस वर्ष रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने की शताब्दी है. अभी कुछ वर्ष पहले उनके उपन्यास ‘गोरा’ की शताब्दी थी. जिस वर्ष महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ लिखा गुरुदेव का ‘गोरा’ भी उसी वर्ष अर्थात 1909 में रचा गया. उस समय तक रवि बाबू और गांधी जी परिचित नहीं थे. लेकिन दोनों ने अपनी इन कालजयी कृतियों द्वारा उस दौर में भारत और भारतीयता की कालांतरगामी व्याख्या की. 

‘गोरा’ यों तो एक प्रेमकथा है. पर उसकी वैचारिकी अत्यंत पुष्ट है. इस कृति में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जाति, धर्म, क्षेत्र और वर्ण से परे देशभक्ति की व्याख्या की तथा भारतीय समाज के अंतर्विरोधों को भी सामने लाने का साहस दिखाया. ब्रह्मसमाज के सामने लेखक ने गोरा को खड़ा किया और नई-पुरानी विचारधाराओं के संघर्ष को उभारकर इसे भारतीय साहित्य का गौरव ग्रंथ बना दिया. उस समय भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव से समाज के पिछड़े समुदाय असंतोषग्रस्त थे. बाह्याचार और रीति-रिवाज में नई पीढ़ी घुटन महसूस कर रही थी. धार्मिक और सामाजिक आंदोलन सुधार और उद्धार की बात कर रहे थे. ऐसे में ‘गोरा’ ने यह प्रस्तावित किया कि उद्धार से बड़ी बात है प्रेम की, श्रद्धा की – पहले हम एक हों, उद्धार अपने आप हो जाएगा. कहना न होगा कि यह सूक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1909 में रही होगी. 

‘गोरा’ की प्रासंगिकता उसे आज फिर बार-बार पढ़ने की जरूरत जताती है. इस उपन्यास का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. हिंदी में बहुत पहले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने इसका अनुवाद किया था. अब इसका एक और अनुवाद प्रो.देवराज ने किया है. स्मरणीय है कि “’गोरा में कितने ही ऐसे विभिन्न कोटियों के शब्द और प्रयोग हैं जिनके सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक और लोकजीवन के दैनिक प्रयोगों से जुड़े संदर्भों को जाने बिना ‘गोरा’ का मूल पाठ नहीं समझा जा सकता. अनुवाद में इनके प्रयोग के साथ ही पाद-टिप्पणियों में इनकी व्याख्या कर दी गई है. अब तक देशीया विदेशी भाषाओं में ‘गोरा’ के जितने भी अनुवाद हुए हैं, उनमें से किसी में भी यह विशेषता मौजूद नहीं है’. इस दृष्टि से ‘गोरा’ का यह अब तक का सबसे प्रामाणिक अनुवाद है.” 

डॉ.देवराज ने यह अनुवाद प्रस्तुत करते समय मूल रचना की सांस्कृतिक चेतना को ही नहीं बल्कि भाषिक संरचना को भी भलीभाँति खोलकर पुनःसृजित किया है. स्मरणीय है कि ‘गोरा’ की कथा भाषा अत्यंत अर्थगर्भी मानी जाती है क्योंकि इसमें लेखक ने पश्चिम बंग की साधु बांग्ला, पूर्वी बांग्ला (वर्तमान बांग्लादेश) की बांगाल भाषा, लोक में व्यवहृत बांग्ला के विविध रूपों, प्राचीन पारम्परीण शब्दों, सांस्कृतिक शब्दावली, नवनिर्मित शब्दावली और भौगोलिक शब्दावली के लोक प्रचलित रूपों का अद्भुत समन्वय किया है. कविताओं और गीतों के अलावा बाउल गीतों और लोक गीतों का प्रयोग इसकी भाषा को और भी संश्लिष्ट बना देता है. अनुवादक ने इन सब स्तरों और वैविध्यों को पहचानकर प्रस्तुत अनूदित पाठ तैयार किया है.



अंततः पाठकों के विचारार्थ ‘गोरा’ का यह स्त्रीविमर्श –
 “गोरा अपने मन पर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो गया. जितने दिन भारत की नारी उसके लिए अनुभव गोचर नहीं थी, उतने दिन भारतवर्ष को वह कितने अधूरे रूप में उपलब्ध करता रहा था, इसके पूर्व वह जानता ही नहीं था. नारी जब गोरा के लिए अत्यंत छायामय थी, तब देश के संबंध में उसका जो कर्तव्य-बोध था, उसमें कितनी कमी थी! मानो, शक्ति थी, किंतु उसमें प्राण नहीं थे. जैसे मांसपेशियाँ थीं, पर नाडियाँ नहीं थीं. गोरा एक पल में समझ गया, नारी को हमने जितना ही दूर हटा कर, क्षुद्र बना कर रखा है, हमारा पुरुष भी उतना ही शीर्ण होकर मरा.”