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बुधवार, 15 जनवरी 2014

भारतीय टेलीविजन पर नया प्रयोग – ‘24’




मीडिया विमर्श 
भारतीय टेलीविजन पर नया प्रयोग – ‘24’
                                                   - ऋषभ देव शर्मा 


भारतीय टेलीविजन के लिए रहस्य, रोमांच और जासूसी धारवाहिक कोई नई चीज नहीं है. सच तो यह है कि नब्बे प्रतिशत धारावहिक किसी न किसी प्रकार इसी श्रेणी में आते हैं. 15 बरस से अधिक समय से ‘सी आई डी’ तो पूरे परिदृश्य पर छाया हुआ है ही, उसके पहले भी बासु चटर्जी और रजत कपूर का ‘ब्योमकेश बख्शी’ तथा शेखर कपूर और विजय आनंद का ‘तहकीकात’ भारतीय टेलीविजन के श्रेष्ठ धारावहिकों में जगह बना चुके हैं. लेकिन ये सभी रोमांचकारी और जासूसी (थ्रिलर) धारावाहिक एक या उससे कुछ अधिक कड़ियों में समाप्त हो जाने वाली कथाओं के समुच्चय रहे हैं. इसके विपरीत ‘24’ के रूप में भारतीय भाषाओं के दर्शक को एक ऐसा थ्रिलर देखने को मिला जो निरंतर 24 कड़ियों तक एक ही कथा को रूपायित करता है. यही कारण है कि इसे भारतीय टेलीविजन पर एक अभिनव प्रयोग के रूप में देखा गया. पारिवारिक–ऐतिहासिक-पौराणिक धारावाहिकों की निरंतरता एक प्रकार की होती है जबकि थ्रिलर की निरंतरता दूसरे प्रकार की है क्योंकि इसमें जिज्ञासा, उत्सुकता, उत्कंठा, सिहरन, रहस्य, संघर्ष और रोमांच को निरंतर बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है. 

एक और खास बात जो ‘24’ को आज के अन्य तमाम सफल धारावहिकों से अलग करती है इसके लक्ष्य दर्शक समूह से जुड़ी है. ‘24’ के प्रस्तुतकर्ताओं ने इसे कॉर्पोरेट जगत के युवा, शहरी दर्शक (Young Urban Professionals - YUPPIES) को ध्यान में रखकर बनाया है. आम तौर से यह ऐसा समूह है जो प्रायः हिंदी टेलीविजन नहीं देखता अतः ‘24’ की यह बड़ी सफलता है कि उसने इस नव अभिजात दर्शक वर्ग को हिंदी टेलीविजन की ओर आकर्षित किया. यों तो सभी धारावाहिक कुछ नया देने की साधारण प्रतिज्ञा के साथ आरंभ होते हैं लेकिन धीरे धीरे सामान्य धारावाहिकों की मुख्य धारा में बह निकलते हैं. दूसरी ओर ‘24’ ने अपनी जो विशिष्ट धारा प्रवाहित की उसका रास्ता अंत तक बदला नहीं. बदलना संभव भी नहीं था क्योंकि अनंत काल तक चलने को अभिशप्त अन्य धारावहिकों की तरह उसका फॉर्मेट खुला हुआ और लचीला नहीं है. बल्कि 24 कड़ियों में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करके फलागम तक पहुँचना ही उसकी नियति है. कड़ियों की सीमित संख्या के इस अनुशासन के कारण ‘24’ में गत्वरता और पैनापन बना रहता है, दूसरे धारावाहिकों की सी ठहरी हुई झीलें नहीं बनतीं. इसका श्रेय समय के दोहरे दबाव को दिया जा सकता है. एक दबाव 24 घंटे में खत्म होने का. दूसरा दबाव कम से कम समय में तमाम संकटों और अवरोधों को पार करके लिए गए टास्क को संपन्न करने का. 

बेशक यह धारावाहिक टेलीविजन थ्रिलर के क्षेत्र में ऋतु (seasons) की संकल्पना को प्रवर्तित करने वाला पहला थ्रिलर साबित हुआ है. क्योंकि इसकी दूसरी ऋतु (season - 2) का अनुमोदन हो चुका है. इसकी पहली कड़ी देखकर ही दर्शकों को यह पता चल गया था कि यह भारतीय टेलीविजन पर रोमांचक कथा प्रस्तुति के क्षेत्र में वैसा ही बड़ा कारनामा साबित होगा जैसा यथार्थ प्रदर्शनों (Reality Shows) के क्षेत्र में ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और एनिमेशन के क्षेत्र में ‘डक टेल्स’ साबित हुए थे. ऐसा इसलिए नहीं कि इसकी कहानी बड़ी श्रेष्ठ है बल्कि इसलिए भी कि यह बहुत महँगा उत्पाद है. इसमें संदेह नहीं कि प्रति एपिसोड की दृष्टि से यह अब तक का सबसे महँगा भारतीय धारावाहिक है. 

विशिष्ट दर्शक समूह को संबोधित होने के बावजूद ‘24’ व्यावसायिक दृष्टि से इसलिए सफल धारावाहिक है कि इसे जो दर्शक एक बार मिला वह इसे छोड़कर कहीं और गया नहीं. यह जगजाहिर है कि गृहिणियों को लक्षित पारिवारिक धारावाहिकों आदि का दर्शक व्यावसायिक अंतराल (विज्ञापन) आने पर तेजी से चैनल बदलने लगता है – अपनी पसंद का वैसा ही कोई और रोने-पीटने या चीखने-चिल्लाने वाले किसी और धारावाहिक का दृश्य पकड़ने के लिए. लेकिन ‘24’ का यह विशिष्ट दर्शक उस सबमें रुचि नहीं रखता. इसलिए अंतराल में विज्ञापन भी देखता है. यही कारण है कि आरंभ से ही विज्ञापनदाताओं में ‘24’ के लिए होड़ रही. सर्वेक्षणों से पता चला है कि इस धारावाहिक के 1/3 दर्शक दिल्ली और मुंबई के नव अभिजात वर्ग के हैं जो विज्ञापनदाताओं के लिए बेहतर लक्ष्य दर्शक समूह है. लेकिन यहाँ यह भी कहना होगा कि शुक्रवार और शनिवार को रात 10 से 11 बजे का जो समय इस धारावाहिक को दिया गया, वह ठीक नहीं है. क्योंकि इसके लक्ष्य दर्शक समूह के लिए ये दिन और समय पार्टी के लिए नियत हैं. संभवतः यह बात अब प्रस्तुतकर्ताओं की समझ में आ गई है क्योंकि इसकी दूसरी ऋतु के लिए मुख्य दिनों को ही चुनने की घोषणा की जा चुकी है. 

अब तक की बातों से कहीं आप यह न समझ बैठें कि ‘24’ की सफलता का आधार इसका महँगा होना भर है. नहीं, बिलकुल नहीं. दरअसल पारिवारिक धारावाहिकों ने जो दशक भर से अधिक से एक विशेष प्रकार की टेलीविजन मानसिकता का जड़ीभूत रूप तैयार कर दिया है ‘24’ की सफलता का रहस्य उसकी बर्फ तोड़ने में है. हम-आप बरसों बरस देखते आ रहे हैं ऐसे सहज में पहचाने जाने वाले चरित्रों को जो किसी ‘घराने’ से संबंध रखते हैं, बड़े अमीर हैं और बड़े महत्वाकांक्षी भी – जैसा बनाने का सपना सामान्य भारतीय मध्य वर्ग आजीवन देखता रहता है. हम और आप बरसों से देखते चले आ रहे हैं परंपरा और आधुनिकता का एक अजीब सा घालमेल और विचित्र सा संघर्ष जिसमें मानो कि सारा का सारा टेलीविजन उद्योग ‘संस्कार’ और ‘परंपरा’ को बचाने के अभियान में जुटा है – क्योंकि यही आम भारतीय मानसिकता है और इसी के कारण ये तमाम धारावाहिक दुधारू गाय बने हुए हैं. आने को छोटे परदे पर बड़े परदे की अनेक विभूतियाँ आई हैं, पर सलमान खान, शाहरूख खान, अक्षय कुमार, माधुरी दीक्षित, रवीना टंडन जैसी हस्तियाँ यथार्थ प्रदर्शनों में आईं जरूर लेकिन यथास्थिति को चुनौती तक नहीं दे सकीं. हाँ, आमिर खान जरूर एक नए और भिन्न प्रारूप (फॉर्मेट) को लेकर आए पर उससे भी भारतीय टेलीविजन के चेहरे और चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया. समझा जा रहा है कि 2014 में प्रसारित होने वाला अनुराग कश्यप और अमिताभ बच्चन का शो शायद इस दशकों पुरानी धारा को बदलने वाला साबित होगा. वैसे ‘24’ ने इस बदलाव की नींव डाल दी है. 

‘24’ की सफलता का श्रेय इससे जुड़े हुए उत्कृष्ट मंडल (Team) को जाता है. इसके निर्माता और केंद्रीय चरित्र अनिल कपूर ने अपना जो मंडल बनाया है उसमें शामिल नामों को देखिए – रंग दे बसंती और कुर्बान के लेखक रेंसिल डी सिल्वा तथा लुटेरा और ब्लैक की लेखिका भवानी अय्यर जैसे दो लेखक, निर्देशक के रूप में डेल्ही बेल्ली के निर्देशक अभिनय देव तथा अभिनेताओं में टिस्का चोपड़ा, अनुपम खेर, शबाना आज़मी, अजिंक्य देव, राहुल खन्ना, मंदिरा बेदी, यूरी सूरी, पूजा रूपारेल, अधीर भट्ट और प्रियंका बोस आदि. प्रस्तुतीकरण की अभिनवता ने इस मंडल के साथ मिलकर वास्तव में चुंबकीय आभामंडल का निर्माण किया है. दृश्यांकन की भिन्न शैली में विभाजित परदे (Split Screen) और प्रतिक्षण भागती हुई घड़ी का प्रयोग दर्शक के दिल की धड़कनें बढ़ाने के लिए काफी है. कहना न होगा कि ‘24’ के दृश्यखंडों (Shot) की लंबाई भारतीय टेलीविजन के अब तक प्रदर्शित कार्यक्रमों में लघुतम है और एक साथ समानांतर चलते हुए अनेक कथासूत्रों की विद्यमानता भी अभूतपूर्व है. इसीलिए विभाजित परदे की तकनीक अत्यंत प्रभावी साबित हुई है. अलग अलग चार बाक्सों में एक ही क्षण में घटित होती चार घटनाएँ एक साथ देखना भारतीय टेलीविजन दर्शक के लिए नई और चमत्कृत करने वाली चीज है. घिसेपिटे लीकोंलीक चलने वाले पारिवारिक धारावाहिकों के दर्शक के लिए यह विस्मयकारी है कि आखिर क्यों और कैसे इतनी सारी चीजें एक साथ घटित हो रही हैं. और किसलिए तमाम खलपात्र अधबीच में रास्ते से हटा दिए जाते हैं और नए पात्र खल के रूप में सामने आ जाते हैं. यह मानना पड़ेगा कि लेखकों ने बेहद बढ़िया काम करके दिखाया है. उन्होंने बहुत ख़ूबसूरती से एक राजनैतिक परिवार के अंदरूनी घात-परिघात को आतंकवाद और जासूसी की आधिकारिक कथावस्तु के साथ जोड़कर तमाम तरह के मसालों का क्या खूब तड़का लगाया है! 

स्मरणीय है कि हिंदी का ‘24’ अमेरिकी दूरदर्शन के अतिशय लोकप्रिय ‘24’ का भारतीय संस्करण है. वह वाला ‘24’ अमेरिका में घटित 9/11 के कुछ सप्ताह बाद आरंभ हुआ था और 2010 तक उसकी आठ ऋतुओं का फेरा चला था. आठवी ऋतु में अनिल कपूर ने इस्लामी नेता उमर हसन की भूमिका निभाई थी और अमेरिकी दूरदर्शन की कार्यशैली को निकट से देखा समझा था. भारत में 26/11 के आतंकी हमले होने पर उनके मन-मस्तिष्क में भारत के लिए ‘24’ बनाने का विचार आया. ‘24’ की मूल अवधारणा यह रही है कि इसकी तमाम गतिविधि का केंद्र आतंकवाद विरोधी संगठन है जो 24 घंटे के भीतर किसी बड़े नेता की हत्या के आतंकी प्रयास को बेपर्दा और निष्फल करता है. ये 24 घंटे ही इस धारावाहिक की एक ऋतु का सृजन करते हैं. अर्थात 1 दिन = 1 ऋतु. ये 24 घंटे ही एक एक घंटे के 24 एपिसोड बनते हैं और निरंतर टिक टिक करती हुई घड़ी इन 24 घंटों के बीतने का बोध कराती रहती है. इसीलिए यह कहा गया है कि ‘24’ की समस्त घटनाएँ ‘वास्तविक समय’ में घटित होती हैं. हिंदी के ‘24’ ने इस मूल प्रारूप को ज्यों का त्यों अपनाया है. 

इस धारावहिक का आधिकारिक कथासूत्र तो इतना सा है कि भारत के युवा प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रहे जनप्रिय, ईमानदार और निष्ठावान नेता आदित्य सिंघानिया की नन्ही सी जान को लाख खतरे हैं और आतंक विरोधी इकाई (Anti Terrorist Unit - ATU) के चीफ जयसिंह राठौड़ (अनिल कपूर) को हर हाल में उनकी रक्षा करनी है. आदित्य सिंघानिया का परिवार तमाम तरह के राजनैतिक षड्यंत्रों में लिप्त है तो लंकाई आतंकी रवींद्रन अपने परिवार को खोकर अंधराष्ट्रवादी आतंककारी दैत्य में बदल चुका है. उसकी साँठ-गाँठ भावी प्रधानमंत्री के परिवार में भी है. इस सबसे अनजान जयसिंह राठौड़ बिखरे सूत्रों को समेटता फिरता है – उसे आदित्य को तो बचाना ही है अपने परिवार को भी बचाना है जिसमें उसकी पत्नी, बेटी और बेटा शामिल हैं. इस परिवारत्रयी के सहारे लेखकद्वय ने राजनैतिक थ्रिलर को पारवारिक संबंधों और भावनाओं के संघर्ष के साथ जोड़ा है जो निश्चय ही भारतीय दर्शक के मन को छूने वाला है. 

साथ ही इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आदित्य सिंघानिया का परिवार दर्शक को राहुल गांधी के परिवार जैसा दिखाई देता है. लेकिन यह भी तय है कि इससे राहुल गांधी को किसी प्रकार का चुनावी लाभ नहीं मिल सकता क्योंकि यदि उनके जैसा दिखता आदित्य का पात्र बेहद सुलझा और साफ़ सुथरा है तो दूसरी ओर आदित्य का परिवार (जिसमें उनकी माँ से लेकर बहनोई तक शामिल हैं) साजिशों में लिप्त दिखाया गया है. लेखकद्वय ने नेहरु-गांधी परिवार और आदित्य सिंघानिया परिवार में समानताएँ खोजने को अनावश्यक बताते हुए यह साफ़ किया है कि उन्होंने अपने नेता या भावी प्रधानमंत्री को केवल इसलिए युवा चित्रित किया है क्योंकि उन्हें स्वयं देश के युवाओं से बड़ी उम्मीद है. इस प्रकार उन्होंने अपना रचनाधर्म निभाने का प्रयास किया है और एक जासूसी कथा को सामाजिक, राजनैतिक आदर्श परिप्रेक्ष्य प्रदान करने के लिए आदित्य सिंघानिया के रूप में एक ऐसा युवा प्रधानमंत्री रचा है जो आदर्शवादी है, जोड़तोड़ से घृणा करता है, सिद्धांतों पर अटल रहता है और मूल्याधारित राजनीति का पक्षधर है. प्रकारांतर से समसामयिक भारतीय जनमन की आवाज भी यही है. इस युगबोध और मूल्यबोध से संपृक्त होने के कारण ‘24’ की ग्राह्यता और प्रेष्यता बढ़ गई है. 

[*चित्र : ‘24’ में अपनाए गए विभाजित परदे के प्रयोग का एक उदाहरण]

                                                                        बहुब्रीहि/ अर्द्धवार्षिक/ जुलाई-दिसंबर 2013/ पृष्ठ 34-38.

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