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सोमवार, 29 सितंबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 7: साहित्यिक विधाओं का दृश्य-श्रव्य रूपांतरण

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज सातवीं किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -7


रविवार, 28 सितंबर 2014

हिंदी भाषा का महत्व : समसामयिक परिप्रेक्ष्य (बीज भाषण)


समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से वर्ष 2014 के भारतीय राजनैतिक और वैदेशिक परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी आहट दर्ज कराई है. भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा. 

भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में प्रधानमंत्री के स्वयं गुजरातीभाषी होते हुए चीन के नेताओं से ब्रिक्स सम्मलेन से पहले या भारत यात्रा के दौरान हिंदी में बातचीत करने, नेपाल और जापान की यात्राओं के अवसर पर हिंदी में बोलने, 24 सितंबर 2014 को मंगलयान के कक्षा में स्थापित होने के अवसर पर वैज्ञानिकों को अंग्रेजी के साथ सहज हिंदी में संबोधित करने और 27 सितंबर 2014 को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र के बहाने समूचे विश्व को हिंदी के माध्यम से संबोधित करने की घटनाओं को कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा. इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढाने को बढ़ावा मिलेगा. मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी. इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है. उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, का वर्ष 2014 में 7 देशों के 12 विश्वविद्यालयों से हिंदी पढाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं. इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर होगा. अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे है.

कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है. बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों [डिप्लोमेसी] की भाषा का है तो दूसरा पहलू शासन [गवर्नेंस] की भाषा का. तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है. हिंदी के महत्व के पांचवे आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जन संसार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए [सोशल] मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा. सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है. इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी. भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय / समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे. इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा. अर्थात हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियों (हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी. हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है. हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग अलग हैं जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं. इसी से हिंदी के महत्व का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है. कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है. इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है. हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है. अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता.

यहीं हिंदी भाषा के महत्व का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है. भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भण्डार अक्कोट है लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओँ सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं. समाज को इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकार स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा. आज हिंदी ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में समर्थ हो चुकी है. पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे ?

हिदी के महत्व का आठवां आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के थ्री-डाइमेंशनल प्रकार्य से आगे बढ़कर फोर्थ डाइमेंशन के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है. इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में. इसके लिए बार बार संकल्पबद्ध होकर भी भारत सरकार ने कुछ ठोस कार्य नहीं किया है. इससे हमारी अपनी भाषा के प्रति उदासीनता ही प्रकट होती है. लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है. व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कम्प्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी. बज्ज़र की चर्चा मैं पहले कर ही चुका हूँ, रही कम्प्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चूका है कि हिंदी कम्प्यूटर के लिए और कम्प्यूटर हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं. हिंदी के कम्प्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियां अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों. दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कम्प्यूटर की दोस्त. इस प्रकार विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है. इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया सोशियो-टेक्नोलॉजिकल अवतार लेने वाली है.

इतना ही नहीं, अनुवाद उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है. इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी उसकी प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है. इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा के महत्व का ग्यारहवां आयाम जो राष्ट्रीय अस्मिता और निज भाषा के गौरव से संबंधित है. कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है. निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं. वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’ 

- डॉ. ऋषभ देव शर्मा 

शनिवार, 27 सितंबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 6 : नाट्य रूपांतर

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज छठी किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -6


दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 5 : टेलीविजन नाट्य लेखन

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज पाँचवी किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -5.


शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

दुष्ट की मुस्कान

भूमिका

स्वर्गीय दुर्गा दत्त पांडेय की कविताओं के इस समग्र संकलन की भूमिका लिखते समय मन-मस्तिष्क द्रवित और विचलित है. विश्वास ही नहीं होता कि सदा हँसने-हँसाने वाला वह अंतरंग दोस्त इस तरह रोने के लिए छोड़कर चला गया है. सच, दुर्गा दत्त पांडेय जितने सौम्य थे उतने ही नटखट भी. दोस्तों के साथ निरापद शैतानियाँ करने में उन्हें मजा आता था. वे प्यार करने वाले और रिश्तों को निभाना जानने वाले दुनियादार जीव थे. भावनाओं में बड़े मृदु, लेकिन विचारों में उतने ही दृढ़. समाज की रूढ़ियाँ और राजनीति की विसंगतियाँ उन्हें बर्दाश्त नहीं थीं. वे जड़ताओं के दुश्मन थे; और गतिशीलता के सच्चे समर्थक. ज्यादातर लोगों ने उन्हें हँसते-मुस्कुराते खिलखिलाते देखा होगा लेकिन इस सदा ठहाके लगाते व्यक्ति के भीतर कहीं कोई गहरी ठीस थी, कोई अभाव था, कोई घाव था जिससे पीठ फेरने के लिए ही  शायद ठहाके की तकनीक खोजी गई थी. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि एक से अधिक अवसरों पर ऐसा हुआ जब एकांत में मेरे घर पर दुर्गा दत्त पांडेय आपबीती सुनाते समय रो पड़े थे – सिसक, फफक और फूट फूटकर. लेकिन अपने इस निजी दर्द को उन्होंने कविता का विषय नहीं बनाया बल्कि जगबीती को, दुनिया के दर्द को, कुछ इस तरह बयान करने का व्रत लिया कि दर्द हास्य में बदल गया और वेदना व्यंग्य में.
मुझे लगता है कि दुर्गा दत्त पांडेय ने हास्य-व्यंग्य को जीवन शैली के रूप में विकसित किया था ताकि आत्मगोपन के साथ साथ जनरंजन और जनमंगल को भी बखूबी साधा जा सके. प्रायः देखा जाता है कि मंचों पर सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत सारे कवियशःप्रार्थी महानुभाव जबरदस्ती चुटकुलों को कविता बनाने का उद्योग करते रहते हैं. इसके विपरीत सच्चे हास्य-व्यंग्य कवि की पहचान है कि अपने आसपास चल रहे घटनाचक्र, वार्तालाप, गतिविधि आदि पर उसकी चौकन्नी नजर रहे और इन्हीं में से वह झट से अपने काव्य के आलंबन और उद्दीपन उठा ले. किसी हास्य-व्यंग्यकार को जब ऐसी सामग्री मिलती है तो उसकी आँखों में एक खास तरह की चमक आ जाती है और विसंगति पर हंसाने की तैयारी करते हुए उसके मस्तिष्क में शातिर सोच सक्रिय हो उठता है. मैंने दुर्गा दत्त पांडेय की आँखों में इसी शातिर सोच की चमक हर बार देखी है. मेरी मान्यता रही है कि दुर्गा दत्त पांडेय ‘स्वभावतः’ हास्य-व्यंग्यकार थे और प्रतिक्षण ऐसे लक्ष्यों का पीछा करते रहते थे जिन्हें या तो वाणी से गुदगुदाया जा सके या शब्दों से गुपचुप पीटा जा सके. उनकी कविता ये दोनों काम बखूबी करती है. गुदगुदाती भी खूब है और मर्म पर ऐसी चोट भी करती है कि कहते न बने. यही कारण है कि हम यार लोग उन्हें प्यार से ‘दुष्ट’ कहकर पुकारते थे. 3D अर्थात दुर्गा दत्त दुष्ट!!!
दुर्गा दत्त पांडेय के पास विषयों की कमी नहीं थी. वे एक जागरूक नागरिक थे और मूलतः एक संवेदनशील मनुष्य. उनकी संवेदनशीलता और जागरूकता ने उनकी कविता को विषय वैविध्य प्रदान किया; जीवन के अनुभवों ने गहराई और अनुभूतियों ने मार्मिकता प्रदान की. उनकी कविताओं में वे सारी परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं जिन्होंने आज के मनुष्य के जीवन को विकृत बनाकर रख दिया है. दरअसल हास्य-व्यंग्य लिखना इसलिए भी कठिन होता है कि इसकी जड़ में विकृतियाँ और विडंबनाएं रहती हैं लेकिन इस पर फूल और फल मनोरंजन तथा सक्रियता के खिलाने होते हैं. इस काम में दुर्गा  दत्त पांडेय सिद्धहस्त थे. अपनी कविताओं में वे चाहे किसी भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक, राजनैतिक राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय विसंगति, विकृति या विडम्बना को ग्रहण कर सकते थे और उसके साथ अपनी प्रतिभा से इस तरह का काव्यात्मक उपचार कर सकते थे कि एक साथ कई कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ श्रोता/ पाठक के मन मस्तिष्क पर होती रहें. वास्तव में, कवि दुर्गा दत्त पांडेय का मुख्य उद्देश्य अपने श्रोता/ पाठक को हँसाना भर नहीं है. हँसी तो एक बहाना है जिसके सहारे वे अपने पाठक/ श्रोता को चारों  ओर की वह दुनिया दिखाना चाहते हैं जिसमें निरंतर अघटनीय घटनाएँ घट रही हैं. उनकी कविताएँ इसके लिए यथार्थ चित्रण, करुणा, त्रास के संदर्भ और यथास्थान संदेश व उपदेश की तकनीक तो अपनाती ही है, कभी कभी आवेश और आक्रोश की मुद्रा भी अख्तियार कर लेती है. यह सारा कुछ वह इसलिए करती है कि उसे जनता को सचेत और जागरूक बनाना है क्योंकि इसी में पृथ्वीग्रह की भलाई है.
कवि दुर्गा दत्त पांडेय जानते हैं कि आज आदमी का दिमाग विकृत हो गया है, डैंड्रफ उसके बालों में ही नहीं, शैतान की तरह दिमाग में भी घुस गया है; इसलिए व्यंग्य का रसायन इस्तेमाल करके उसकी जड़ों तक सफाई करना जरूरी है. यह विकृति इतनी व्यापक है कि जिधर देखिए उधर ही हास्य-व्यंग्य की सामग्री उपलब्ध मिल जाती है. घर-परिवार में पति-पत्नी के संबंध हों, समाज में लोगों के आपसी रिश्ते हों, कवियों और अध्यापकों से लेकर अधिकारियों और नेताओं तक की कारगुजारियां हों, देश और विदेश का कूटनैतिक और व्यापारिक वातावरण हो – सर्वत्र ऐसी गडबडियां उपस्थित हैं जो किसी भी संवेदनशील नागरिक को विचलित और द्रवित कर सकती हैं. पांडेय जी पर्यावरण के हरण से लेकर सर्वव्यापी  भ्रष्टाचार, जनता के प्रति नेताओं की उपेक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी, जन समस्याओं को अनसुनी करने की प्रवृत्ति, सर्वत्र मूल्यों के क्षरण, स्त्रियों के अपमान और पुरुषों के अभिमान, श्रमजीवियों की दुर्गति, बच्चों के शोषण, लैंगिक भेदभाव, मानवाधिकारों की हत्या आदि अनेकानेक मुद्दों को कविता में इस तरह ढालते हैं कि पाठक भीतर ही भीतर तिलमिलाने के बावजूद कभी मुस्कुराने और कभी अट्टहास करने के लिए विवश हो जाता है. जब वे ‘करुण हास्य’ की सृष्टि करते हैं तो संवेदनशील पाठक/ श्रोता सिर पीटने और ताली पीटने जैसे दो काम एक साथ करता है.
संप्रेषणीयता की ऐसी द्वंद्वात्मक सिद्धि शब्दों के साथ खिलवाड में सिद्धहस्त कवि दुर्गा दत्त पांडेय को कथन की विविध शैलीय युक्तियों का प्रयोग करने से प्राप्त हुई है. इन युक्तियों में विचित्र सहसंबंधों और सहप्रयोगों का सृजन, बोलचाल की भाषा के बीच भारी भरकम प्रतीत होने वाले तत्सम शब्दों का सजीव सजाव, समानांतर स्थितियों की एक जैसी शृंखला का निर्माण, विरोध को प्रकट करने वाले द्वंद्व और तनाव की सृष्टि, मुहावरों और लोकोक्तियों का सन्निवेश, अधिकतर कविताओं में ‘मैं’ शैली के साथ किस्सागोई अथवा कथात्मकता का सुंदर निर्वाह, कविता को विस्तार देने के लिए रोचक विवरणों और बिंबों का सृजन, मारक उत्कर्ष की रचना, मार्मिक प्रसंगों की पहचान, प्रायः अंत में नैतिकता की ओर संकेत करते हुए विडंबनापूर्ण यथार्थ को बदलने की प्रेरणा देने वाला सांकेतिक संदेश, सूक्ति गठन, पुराण-इतिहास-राजनीति और फिल्मों के लोकप्रिय संदर्भों का समावेश, शब्दों के खेल में विचित्र अर्थ की खोज, उचित अवसर देखकर कोंचने वाली भाषा में धिक्कार, विचित्र उपमाओं का चयन और पैरोडी का प्रयोग शामिल हैं. मानना पड़ेगा कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से दुर्गा दत्त पांडेय एक प्रयोगशील रचनाकार हैं. उन्होंने जनपद सुख बोध्य, गूढ़पद रहित, सहज भाषा का मुहावरा अपनाया और दक्खिनी हिंदी पर भी सफलता पूर्वक हाथ आजमाया. हाइकू लिखने में भी वे पूरे उस्ताद थे. 
एक और खास बात, जो मुझे सदा आकर्षित करती रही है, यह है कि दुर्गा दत्त पांडेय ने यद्यपि हास्य-व्यंग्य के लिए सरलता से उपलब्ध परंपरागत टारगेट के रूप में स्त्री को अपनाया है लेकिन वे निरंतर स्त्री के प्रति होने वाले अन्याय और अत्याचार से क्षुब्ध दिखाई देते हैं और स्त्री के प्रति विशेष सम्मान का भाव रखते हैं. सम्मान का भाव उनकी कविताओं में राष्ट्र की रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति भी बार बार व्यक्त हुआ है.
कवि वस्तुतः स्वप्नद्रष्टा होता है. वह यथार्थ जगत की बिगड़ी तस्वीर को तो देखता और दिखाता ही है लेकिन कामना सदा ऐसे एक समानांतर विश्व की करता है जिसमें ये सारी विकृतियाँ, विसंगतियाँ और विडंबनाएं न हों. दुर्गा दत्त पांडेय भी यही कामना करते हैं कि यह पृथ्वी सब प्रकार से मंगलमय जीवन से परिपूर्ण हो. अपनी कविता में वे चाहते हैं कि चारों ओर भाईचारा, सुख समृद्धि, शांति और अहिंसा हो; जात-पांत, मंदिर मस्जिद, कुर्सी के झगड़े, सुनामी प्रलाप, रेल, विमान एवं बस दुर्घटनाएं समाप्त हों, समाज और देश कल्याण की योजनाएँ आधी-अधूरी न रहें, बाल मजदूरी, गरीबी और मजबूरी न रहें, दहेज मिट जाए, बहुओं पर ससुराल में अत्याचार न हो, शिक्षा-दीक्षा का स्थान बुलंद हो, भिक्षा पूरी तरह से बंद हो, चारा कांड से लेकर तंदूर कांड तक सारे कांडों का कर्मकांड हो जाए और हमारे प्यारे भारत में पुनः सुंदर सुंदर कांड हो जाएँ! कवि की इन सारी शुभकामनाओं पर तो यही कहने का मन होता है – एवमस्तु! एवमस्तु!!
इन्हीं शब्दों के साथ कविवर स्वर्गीय दुर्गा दत्त पांडेय को श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हुए मैं उनकी ‘मुस्कान’ को सहेजने के लिए संग्रहकर्ता और प्रकाशक को हार्दिक साधुवाद देता हूँ.

प्रथम नवरात्र/ 25 सितंबर, 2014                                          - ऋषभदेव शर्मा         



                                                                                      

बुधवार, 24 सितंबर 2014

'सृजनात्मकता और भाषा' : व्याख्यान सूत्र

24  सितंबर 2014
राजीव गांधी विश्वविद्यालय  [अरुणाचल प्रदेश]
एमए [हिंदी]  के छात्रों के समक्ष 

विशेष व्याख्यान : ऋषभ देव शर्मा 

''सृजनात्मकता और भाषा''


Ø सृजनेच्छा और सृजनशक्ति

Ø नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा और कल्पना शक्ति

Ø ललित कला के रूप में साहित्य सृजन

Ø कला माध्यम : स्थूल से सूक्ष्म

Ø साहित्य सृजन : भाषिक कला के रूप में

Ø भाषा की लचीली प्रकृति

Ø शब्दों पर झेला गया सौंदर्य : शैली

Ø सृजनात्मकता : चयन

Ø सृजनात्मकता : समांतरता

Ø सृजनात्मकता : विचलन

Ø सृजनात्मकता : विपथन

Ø सुदामा पांडेय 'धूमिल' : भूख [अंश]

आततायी की नींद
एतबार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कविता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सिसकियों ने चुकाई है।


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Ø नागार्जुन : अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


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दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 4 : रेडियो नाट्य लेखन

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज चौथी किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -4.


सोमवार, 22 सितंबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 3 : इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हेतु समाचार

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज तीसरी किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -3.


रविवार, 21 सितंबर 2014

राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा

भूमिका 


तमाम तरह की उत्तरोत्तर आधुनिकताओं से आक्रांत आज का आदमी स्मृतिलोप से भरे समय में जीने के लिए विवश है. इतिहास उसके हाथ से छूटा जा रहा है और सूचनाओं का अम्बार उसके बोध की धार को वर्तमान के उस बिंदु तक समेटे दे रहा है जिसके पार जाने की दृष्टि धुंधलाने लगी है. ऐसे में किसी लेखक या चिन्तक का राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा जैसे विषयों पर सोचना या लिखना जाति को जड़हीनता के खतरे से बचाने के प्रयत्न के रूप में देखा जाना चाहिए. डॉ. हरीश कुमार शर्मा की यह कृति ऐसा ही सार्थक और प्रासंगिक प्रयत्न है. इस पूरे प्रयत्न के केंद्र में राष्ट्रीय अस्मिता की बहुवचनीय चेतना आरम्भ से अंत तक सक्रिय दिखाई देती है जो लेखक के व्यक्तित्व का भी अनिवार्य हिस्सा है.

डॉ. हरीश कुमार शर्मा कई दशक से पूर्वोत्तर भारत में रहकर भाषा और संस्कृति के लिए कार्य कर रहे हैं. वे उन विरल बौद्धिकों में हैं जो स्मृति को मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा मानते हैं तथा अपने लेखन में बराबर भारत और भारतीयता के सूत्रों को पहचानने पर जोर देते हैं. उनकी इस कृति का प्रवर्तन बिंदु भी इसी दृष्टि से संबलित है. इसीलिए यह कृति किसी पारंपरिक एकात्मता और समरसता की लफ्फाजी न करके अपने पाठक से यह अपेक्षा करती है कि हम विविधताओं को भी देखें, समझें और उनका सम्मान करें. कहना न होगा कि लेखक की यह लोकतांत्रिक दृष्टि देश, समाज, समय और संस्कृति को जातीय स्मृति की सतत प्रवाहित और परिवर्तनशील धारा की निष्पत्ति के रूप में देखती-दिखाती है. यह दृष्टि इन निष्पत्तियों को भाषा के माध्यम से प्राप्त ही नहीं करती बल्कि यह भी देख पाती है कि हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति का प्रतिरूप हैं – भाषा में तो संस्कृति है ही, भाषा की अपनी संस्कृति भी है. अभिप्राय यह है कि जब हम भारतीय संस्कृति अथवा भारतीयता की पहचान करने निकलते हैं तो इसका सबसे प्रामाणिक और जीवंत रास्ता हमारी भाषाओं से होकर जाता है – तभी तो हिय का शूल मिटाने की रामबाण औषध निज भाषा उन्नति है! परन्तु इस कृति ने उन्नति से आगे बढ़कर उत्तमता पर बार बार ज़ोर दिया गया है क्योंकि लेखक की राय में उन्नति सभ्यता का वाचक है तो उत्तमता संस्कृति का निर्देशक बिंदु. यही कारण है कि इस कृति में राष्टीय स्मृति के निकष पर ग्रहण और त्याग के विवेक को विकसित करने पर बल दिया गया है. यह कृति इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें भारत की भाषिक संस्कृति और उसमें निहित सामासिकता को भावुकता से बचते हुए ऐसे सामाजिक यथार्थ के रूप में विवेचित किया गया है जिसमें तमाम तरह की विषमरूपता के लिए सम्मानजनक स्थान उपलब्ध है.

संस्कृति का जीवंत वाहक होने के कारण भाषा विषयक चिंतन इस पूरी कृति में अंतर्धारा के रूप में परिव्याप्त है. लेखक ने हिंदी को भारत की पहचान माना है और तर्कपूर्वक यह स्थापित किया है कि अपनी केन्द्रापसारी प्रकृति के कारण हिंदी क्षेत्रीयताओं का अतिक्क्रमण करने वाली अक्षेत्रीय भाषा है और उसके वैश्विक प्रसार में सारे भारत ने योगदान किया है अतः हिंदीभाषी और हिंदीतरभाषी जैसा वर्गीकरण आज के सन्दर्भ में निरर्थक हो गया है. 

भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए यह कृति इस देश के सामाजिक ढाँचे के साथ इसके धार्मिक-आध्यात्मिक वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करती है. लेखक ने एकाधिक स्थलों पर स्पष्ट किया है कि धर्म और संस्कृति हमारे निकट रिलीजन और कल्चर मात्र नहीं हैं बल्कि समग्र विश्व को धारण करने वाले मूल्यों और अस्तित्व को औदात्य प्रदान करने वाली साधनाओं के प्रतीक हैं. लोकरक्षण और मनुष्यता का हित यहाँ सारे मत-वादों से ऊपर निर्विवाद कर्म है तथा परहित सर्वोपरि धर्म. महत्तर उद्देश्य के लिए अपरिहार्य हो जाने पर युद्ध और हिंसा भी वरेण्य हैं. साथ ही लेखक का यह भी मत है कि यह सारी वैचारिक और व्यावहारिक मूल्य संपदा हमारी भाषाओं में सुरक्षित है अतः हमें भाषाओँ को संप्रेषण के माध्यम से अधिक अपनी जातीय अस्मिता का द्योतक मानकर उनके संरक्षण-संवर्धन के उपाय करने चाहिए. आज जबकि ‘भूमंडीकरण’ के दौर में बाज़ार दीगर ढेरों चीज़ों की तरह भाषाओँ को भी खा रहा है, बेहद ज़रूरी है कि अपने दैनंदिन व्यवहारों में हम अपनी बोली-बानी को बचाकर रखें. इसी के साथ लोकसाहित्य के संरक्षण की जिम्मेदारियां भी जुडी हुई हैं. विमर्शों के नाम पर लोक के पिछडेपन को बचाना और लोकभाषा व लोकसाहित्य को बचाना दो अलग बातें हैं. लोक को प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ने और उसकी सांस्कृतिक संपदा को सहेजने का दोहरा अभियान त्याग और ग्रहण के, पहले उल्लिखित, विवेक के बिना संभव नहीं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा ने स्थापित किया है कि यह विवेक गीता से लेकर गांधी तक से, यानी राष्ट्रीय स्मृति से, प्राप्त किया जा सकता है वरना तो हमें स्वयं विस्मृति के अँधेरे में गुम होने के लिए तैयार रहना चाहिए.

स्मृतिभ्रंश से बचने के लिए यह भी ज़रूरी है कि हमारी जो जातीय स्मृति हमारी विभिन्न मातृभाषाओं और उनके मौखिक साहित्य में सुरक्षित है, हम उन्हें नष्ट होने से पहले सहेजना शुरू कर दें. हाशिए पर रहे समाजों-समुदायों की यह लोक संपदा उन्नति के क्रम में विस्थापित हो रही है अतः इसके उत्तमांश के प्रति जागरूक हुए बिना काम चलने वाला नहीं है. यह कृति हमसे ऐसी ही जागरूकता की मांग करती है. इस दृष्टि से इस कृति का अरुणाचल प्रदेश की स्मृति, संस्कृति और भाषा सम्बन्धी भाग बेहद बेहद प्रासंगिक है. हमारी इस प्रकार की लोक अस्मिताएं ही तो मिलकर अमूर्त भारतीय अस्मिता को मूर्तिमंत बनाती हैं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा इस क्षेत्रीय अस्मिता को सम्पूर्ण भारतीय अस्मिता के व्यापक सन्दर्भ में ही व्याख्यायित करते हैं. यह कृति हमें भारत के इस अतिशय सुन्दर लोक के जीवन, प्राकृतिक वैभव, जनजातीय वैशिष्ट्य, भाषा और संस्कृति की संपदा और इन सबके साथ नत्थी समस्याओं से एक साथ रूबरू कराती है – कुछ इस तरह कि पाठक के मन में सहज आत्मीयता जागती है. निस्संदेह यह लेखक के अरुणाचल प्रदेश की मिट्टी से गहरे जुडाव का फलागम है.

संस्कृति विमर्श के बहाने भाषा, साहित्य, राष्ट्रीयता और लोक विषयक व्यापक और खुली चर्चा के कारण यह कृति पढ़ने, गुनने और सहेजने योग्य बन गई है. साथ ही इसमें भी संदेह नहीं कि आदमी और आदमी के बीच दीवारें खड़ी करने के इस विषम दौर में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं के सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व के विचार को समर्पित यह कृति भारत के निजीपन को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण पठनीय सामग्री है.

लेखक और प्रकाशक को हार्दिक शुभकामनाएँ!

प्रेम बना रहे!!

14 सितंबर,2014: हिंदी दिवस                                                                                         -ऋषभ देव शर्मा 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन - 2. : रूप/ प्रकार

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए यह सामग्री तैयार करनी शुरू की है.

आज दूसरी किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -2.

बुधवार, 17 सितंबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन - 1.

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए यह सामग्री तैयार करनी शुरू की है.

आज पहली किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -1.