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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

हिंदी की महत्ता और इयत्ता की पहचान कराता ग्रंथ 'हिंदी भाषा के बढ़ते कदम' - प्रो. अरुण

भास्वर भारत 
दिसंबर 2015
पृष्ठ 52-53 


हिंदी की महत्ता और इयत्ता की पहचान कराता ग्रंथ ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’
- डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ 

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में वर्षों तक हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन और अध्यापन में पूर्णतः मनोयोग से समर्पित रहे, चर्चित अक्षर-साधक एवं विद्वान डॉ. ऋषभदेव शर्मा (1957) द्वारा लिखित छह खंडों में सुनियोजित किए गए निबंधों के संग्रह ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ (2015) को मैंने मनोयोगपूर्वक देखा और पढ़ा है. मैं बेझिझक और हार्दिक विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ ऋषभदेव शर्मा ने अपने इन निबंधों में हिंदी भाषा को लेकर अपना जो सुदीर्घ चिंतन दिया है, वह हिंदी और हिंदी की अस्मिता से जुड़े अनेक प्रश्नों के समाधान तलाशने में जिज्ञासुओं की भरपूर मदद करेगा.

उत्तर भारत के छोटे से कस्बे खतौली, जनपद मुज़फ्फर नगर, उत्तर प्रदेश से लगभग तीन दशक पूर्व, दक्षिण भारत में हिंदी के शिक्षण की अपनी महत्वपूर्ण यात्रा पर निकले, तत्कालीन ‘तेवरी-आंदोलन’ के सूत्रधार, हिंदीसेवी डॉ. ऋषभदेव ने अपने इन निबंधों में उन अनेक भ्रांतियों का तर्कपूर्ण निवारण किया है, जिन्हें उत्तर और दक्षिण भारत में संभवतः ‘राजनैतिक साज़िश’ के तहत निरंतर फैलाया जाता रहा है और हिंदी को फलने-फूलने से रोक जाता रहा है.

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ शीर्षक से लिखे गए इस निबंध संग्रह के कुल 43 निबंधों को लेखक ने छह खंडों में रखा है – (1) 'हिंदी का हिंडोला' खंड में 12 निबंध, (2) 'दखिन पवन बहु धीरे' में 07 निबंध, (3).. 'संप्रेषण की शक्ति' में 10 निबंध, (4) 'भाषा प्रौद्योगिकी' में 06 निबंध, (5) 'संरक्षण के निमित्त' में 04 निबंध, (6) 'भाषा चिंतन' में कुल 04 निबंध. 

इस प्रकार विद्वान लेखक डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने सुदीर्घ अनुभवों और भाषागत-चिंतन को अपने इस ग्रंथ में बड़े ही करीने से संजोया है और उनका यह मूल्यवान ग्रंथ समग्र भारत के उन जिज्ञासुओं की चिंताओं और जिज्ञासाओं का समाधान कर सकेगा, जो राजनैतिक कारणों से फैले भ्रमों के कारण उनके हृदयों में घर कर चुकी हैं. 

इस ग्रंथ के प्रथम खंड ‘हिंदी का हिंडोला’ के सभी बारह निबंधों में डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने 'हिंदी' के ऐतिहासिक और भाषागत महत्व को अपने चिंतन का आधार बनाया है. 'हिंदी भाषा का महत्व: समसामयिक परिप्रेक्ष्य' में लेखक ने अत्यंत कुशलता से सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि 'हिंदी' समग्र भारत राष्ट्र में सहज स्वीकार्य भाषा है. वे लिखते हैं “कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर संस्कृति से जोड़ कर नए-नए प्रयोजनों (फंक्शन्स) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है!" (पृष्ठ 20)

अपने ग्रंथ के इसी महत्वपूर्ण खंड के एक अन्य सुंदर और विचारोत्तेजक निबंध ‘जनभाषा की अखिल भारतीयता’ भी मेरी इस धारणा को संपुष्ट करता है और पाठकगण भी इसे पढ़ कर यह अनुभव करेंगे कि विद्वान लेखक हिंदी के 'अखिल भारतीय' महत्व को किस तार्किक दृष्टि से रखते हैं कि सारी की सारी भ्रांतियों का निराकरण स्वतः ही हो जाता है तथा हिंदी के अखिल भारतीय स्वरूप को स्वीकार करने में सहज ही कोई बाधा शेष नहीं बचती. 

इस ग्रंथ का ऐसा ही विचारोत्तेजक और प्रेरक एक निबंध है ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस’, जिसमे डॉ ऋषभदेव शर्मा ने व्याकरणिक आधार के साथ-साथ अन्य दृष्टियों से भी ‘अंग्रेज़ी’ की असमर्थता और अधूरेपन को उजागर किया है. यह निबंध तो निश्चय ही सबके लिए 'आँखें खोलने वाला' और अनिवार्यतः पढ़ा जाने वाला निबंध है.

डॉ. ऋषभदेव के इस मूल्यवान ग्रंथ का दूसरा खंड ‘दखिन पवन बहु धीरे’ तो निस्संदेह बेहद प्रासंगिक और अर्थवान है, जिसमें उन्होंने जहाँ 'दक्षिण' भारत में हिंदी की स्वीकार्यता और बढ़ते कदमों का प्रामाणिक विवेचन और विश्लेषण किया है, वहीं ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषा-वैज्ञानिक आधारों पर हिंदी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं के अंतर-संबंधों को भी बखूबी परखने का प्रयास किया है. दक्खिनी हिंदी की भाषिक और साहित्यिक उपलब्धि की विवेचना करने वाले निबंध इस खंड को दस्तावेजी महत्व प्रदान करते हैं.

इस निबंध संग्रह के तीसरे खंड ‘संप्रेषण की शक्ति’ में संकलित निबंधों में जहाँ हिंदी की ‘प्राण-शक्ति’ अर्थात "सम्प्रेषण-शक्ति" की विवेचना हुई है, वहीं आधुनिक दृष्टि और वैश्विक परिदृश्य के अनुसार हिंदी की उपयोगिता को रेखांकित करने का सजग प्रयास देखा जा सकता है. इस खंड के सभी निबंधों में हिंदी को वर्तमान "बाज़ारवाद" के सन्दर्भ में देखने का जो प्रयास किया गया है, उसके आधार पर डॉ ऋषभ देव शर्मा का यह कार्य स्तुत्य ही माना जाएगा, क्योंकि इन निबंधों से हिंदी को 'कंप्यूटर' के साथ-साथ, आधुनिकतम संचार माध्यमों के लिए 'सक्षम' सिद्ध करने में वे नितांत सफल रहे हैं. मैं तो दावे से कह सकता हूँ कि इस खंड के निबंधों को पढ़ कर आज के तथाकथित 'कम्प्यूटरविद' भी हिंदी के मुरीद हो जाएंगे. ‘बाज़ार-दोस्त भाषा हिंदी’ शीर्षक से लिखा गया निबंध विशेष उल्लेखनीय है, चूंकि इस में अनेक भ्रांतियों का सप्रमाण समाधान लेखक ने किया है - "हिंदी भी नए व्यावसायिक प्रयोजन के रूप में उपस्थित विज्ञापन की चुनौती के अनुरूप नए रूप में निखर कर ऊपर उठ आई है और इस तरह उसने स्वयं को बाज़ार-दोस्त भाषा सिद्ध कर दिया है!"(पृष्ठ 184). इस संदर्भ में डॉ. ऋषभदेव ने पृष्ठ. 186 से 189 तक कई प्रकार के लोकप्रिय विज्ञापनों की भाषा का विश्लेषण करके अपनी बात को प्रमाणित भी किया है.

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ ग्रंथ के चौथे खंड ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ के सभी छह निबंधों को मैं लेखक की सारगर्भित सोच के साथ-साथ चुनौती भरा प्रयास भी मानता हूँ, क्योंकि इन निबंधों में लेखक सर्वथा कई नई और विलक्षण स्थापनाएं देता है. 'हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की परंपरा' के बाद ‘प्रौद्योगिकी और हिंदी’ शीर्षक से लिखे निबंध में डॉ ऋषभ देव वर्मान युग की प्रबलतम चुनौती को स्वीकार करते हैं. उनका निष्कर्ष आज सबको स्वीकार्य है- "इसमें संदेह नहीं कि यूनिकोड की सुविधा प्राप्त होने के बाद अब इंटरनेट और उस से जुड़े विविध कार्यक्षेत्रों में पूर्ण क्षमतापूर्वक हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रयोग विस्तार पा रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिल्म उद्योग, विज्ञापन उद्योग, मोबाइल, लैपटॉप, आई-पॉड, टेबलेट और सोशल मीडिया तक हिंदी की बहार आ रही है!" (पृष्ठ 129 -130)

डॉ ऋषभदेव के इस ग्रन्थ का पांचवां खंड ‘संरक्षण के निमित्त’ निस्संदेह आज के संदर्भों में बेहद प्रासंगिक हो गया है. जिस प्रकार राजनेता और शासन-प्रशासन में हिंदी की उपेक्षा हम ने निरंतर देखी है, तब तो ये निबंध और भी आवश्यक लगते हैं. "भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए" निबंध सचमुच आज पूरे समाज के लिए चुनौती ही प्रस्तुत करता है- "हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए." (पृष्ठ 259)

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ के अंतिम छठे खंड के चार निबंध ‘भाषा चिंतन’ के रूप में डॉ. ऋषभदेव शर्मा के सुदीर्घ अध्यापन और अध्ययन के विस्तृत अनुभवों का निचोड़ ही है. इन निबंधों में कृष्णा सोबती, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया के भाषा चिंतन को आधार बना कर उन्होंने हिंदी भाषा की समृद्धि के साथ-साथ व्यापक संप्रेषण-शक्ति को भी सप्रमाण सिद्ध कर दिया है!

अंत में इस ग्रंथ की भूमिका के लेखक, दक्षिण भारत में हिंदी की ध्वजा को निरंतर ऊँचा रखने वाले विद्वान डॉ एम. वेंकटेश्वर के शब्दों से मैं अपनी सहमति व्यक्त करना चाहूँगा- "लेखक की प्रस्तुत रचना भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के गंभीर अध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है!" 

मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है कि डॉ ऋषभ देव शर्मा के इन सुचिंतित निबंधों का हिंदी-जगत में भरपूर स्वागत होगा और इनसे हिंदी की अभिवृद्धि भी निश्चित रूप से होगी. मैं अपनी हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ डॉ. ऋषभदेव शर्मा का अभिनंदन करता हूँ!

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हिंदी भाषा के बढ़ते कदम/ लेखक : डॉ. ऋषभदेव शर्मा/ प्रकाशक : तेज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली/ 2015/ पृष्ठ. 304/ मूल्य 650 रु. 

डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ 
पूर्व प्राचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
74/3, न्यू नेहरू नगर
रूड़की-247667 
मोबाइल : 09412070351
ईमेल : ynarun@gmail.com

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